Essay on उपभोक्तावाद की संस्कृति  in hindi 10 marks question please answer within 24 hours??

 भारत और उपभोक्तावादी संस्कृति

    विकसित पूँजीवादी देशों में , जैसा कि ऊपर कहा गया है , उपभोक्तावादी संस्कृति उत्पादन प्रक्रिया को बिना पूँजीवादी मूल्यों और ढाँचे को तोड़े चालू रखने और विकसित करने में सहायक होती है । लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में इस संस्कृति का असर इसके ठीक विपरीत होता है । भारत जैसे तीसरी दुनिया के के देशों में जहाँ साम्राज्यवादी सम्पर्क से परम्परागत उत्पादन का ढाँचा टूट गया है और लोगों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए उत्पादन के तेज विकास की जरूरत है , वहाँ उपभोक्तावाद के असर से विकास की सम्भावनाएँ कुंठित हो गयी हैं । पश्चिमी देशों के सम्पर्क से इन देशों में एक नया अभिजात वर्ग पैदा हो गया है जिसने इस उपभोक्तावादी संस्कृति को अपना लिया है । इस वर्ग में भी उन वस्तुओं की भूख जग गयी है जो पश्चिम के विकसित समाज में मध्यम वर्ग और कुशल मजदूरों के एक हिस्से को उपलब्ध होने लगीं हैं । इन वस्तुओं की उपलब्धि में उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी बढ़ोतरी हो जाती है । अत: इस अभिजात वर्ग में और इसकी देखा-देखी इससे नीचे के मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग में भी स्कूटर , टी.वी. , फ्रीज और विभिन्न तरह के सामान और प्रसाधनों को प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा जग गयी है । हमारे अपने देश में इसके दो सामाजिक परिणाम हुए हैं । पहला , चूँकि यही वर्ग देश की राजनीति में शीर्ष स्थानों पर है , देश के सीमित साधनों का उपयोग धड़ल्ले से लोगों की आम आवश्यकता की वस्तुओं का निर्माण करने के बजाय वैसे उद्योगों और सुविधाओं के विकास के लिए हो रहा है जिससे इस वर्ग की उपभोक्तावादी आकाँक्षाओं की पूर्ति हो सके । चूँकि उत्पादन का यह क्षेत्र अतिविकसित तकनीकी का और पूँजी प्रधान है , इन उद्योगों के विकास में विदेशों पर निर्भरता बढ़ती है । मशीन , तकनीक और गैरजरूरी वस्तुओं के आयात पर हमारे सीमित विदेशी मुद्राकोष का क्षय होता है , और हमारा सबसे विशाल आर्थिक साधन जिसके उपभोग से देश का तेज विकास सम्भव था – यानी हमारी श्रमशक्ति बेकार पड़ी रह जाती है । जिन क्षेत्रों में देश का विशाल जन समुदाय उत्पादन में योगदान दे सकता है उनकी अवहेलना के कारण आम लोगों की जीवनस्तर का या तो विकास नहीं हो पाता या वह नीचे गिरता है ।

    दूसरा , चूँकि उपभोक्तावाद व्यापक गरीबी के बीच खर्चीली वस्तुओं की भूख जगाता है , उससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है । चूँकि अभिजातवर्ग में वस्तुओं का उपार्जन ही प्रतिष्ठा का आधार है , चाहे इन वस्तुओं को कैसे भी उपार्जित किया जाय , भ्रष्टाचार को खुली छूट मिल जाती है । कम आय वाले अधिकारी अपने अधिकारों का दुरपयोग कर जल्दी से जल्दी धनी बन जाना चाहते हैं ताकि अनावश्यक सामान इकट्ठा कर सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकें । इसी का एक वीभत्स परिणाम दहेज को लेकर हो रहे औरतों पर अत्याचार भी हैं । बड़ी संख्या में मधयमवर्ग के नौजवान और उनके माता – पिता , जो अपनी आय के बल पर शान बढ़ानेवाली वस्तुओं को नहीं खरीद सकते , दहेज के माध्यम से इस लालसा को मिटाने का सुयोग देखते हैं । इन वस्तुओं का भूत उनके सिर पर ऐसा सवार होता है कि उनमें राक्षसी प्रवृत्ति जग जाती है और वे बेसहारा बहुओं पर तरह – तरह का अत्याचार करने या उनकी हत्या करने तक से नहीं हिचकते । बहुओं की बढ़ रही हत्याएं इस संस्कृति का सीधा परिणाम हैं । डाके जैसे अपराधों के पीछे कुछ ऐसी ही भावना काम करती है । राजनीतिक भ्रष्टाचार का तो यह मूल कारण है । राजनीतिक लोगों के हाथ में अधिकार तो बहुत होते हैं , लेकिन जायज ढंग से धन उपार्जन की गुंजाइश कम होती है । लेकिन चूँकि उनकी प्रतिष्ठा उनके रहन-सहन के स्तर पर निर्भर करती है , उनके लिए अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर धन इकठा करने का लोभ संवरण करना मुश्किल हो जाता है ।

    इस तरह समाज में जिसके पास धन और पद है और भ्रष्टाचार के अवसर हैं , उनके और आम लोगों के जीवन स्तरों के बीच खाई बढ़ती जाती है । इससे भी शासक और शासितों के बीच का संवाद सूत्र टूटता है । सत्ताधारी लोग आम लोगों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनहीन हो जाते हैं और उत्पादन की दिशा अधिकाधिक अभिजातवर्ग की आवश्यकताओं से निर्धारित होने लगती है । इधर आम जरूरतों की वस्तुओं के अभाव में लोगों का असन्तोष उमड़ता एवं उथल – पुथल की अधिनायकवादी तरीकों से जन-आन्दोलन से निपटना चाहता है। तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में राजनीति का ऐसा ही अधार बन रहा है , जिसमें सम्पन्न अल्पसंख्यक लोग छल और आतंक के द्वारा आम लोगों के हित के खिलाफ शासन चलाते हैं ।

    भारत के गाँवों में जो थोड़ा बहुत स्थानीय आर्थिक आधार था उसको भी इस संस्कृति ने नष्ट किया है । भारतीय गाँवों की परम्परागत अर्थ-व्यवस्था काफी हद तक स्वावलम्बी थी और गाँव की सामूहिक सेवाओं जैसे सिंचाई के साधन , यातायात या जरूरतमन्दों की सहायता आदि की व्यवस्था गाँव के लोग खुद कर लेते थे । यह व्यवस्था जड़ और जर्जर हो गयी थी।और ग्रामीण समाज में काफी गैरबराबरी भी थी , फिर भी सामूहिकता का एक भाव था ।हाल तक गाँवों में पैसेवालों की प्रतिष्ठा इस बात से होती थी कि वे सार्वजनिक कामों जैसे कुँआ , तालाब आदि खुदवाने , सड़क मरम्मत करवाने , स्कूल और औषधालय आदि खुलवाने पर धन खरच करें । इस पर काफी खरच होता था और आजादी के पहले इस तरह की सेवा-व्यवस्था प्राय: ग्रामीण लोगों के ऐसे अनुदान से ही होती थी । यह सम्भव इस लिए होता था क्योंकि गाँव के अन्दर धनी लोगों की भी निजी आवश्यकताएँ बहुत कम  थीं और वे अपने धन का व्यय प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए ऐसे कामों पर करते थे । इसी कारण पश्चिमी अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों की हमेशा यह शिकायत रहती थी कि भारतीय गाँवों के उपभोग का स्तर बहुत नीचा है जो उद्योगों के विकास के लिए एक बड़ी बाधा है । इन लोगों की दृष्टि में औध्योगिक विकास की प्रथम शर्त थी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार और विनिमय में शामिल हो जाना ।

    उपभोक्तावादी संस्कृति ने गाँवों की अर्थव्यवस्था के इस पहलू को समाप्त कर दिया है । अब धीरे – धीरे गाँवों में भी सम्पन्न लोग उन वस्तुओं के पीछे पागल हो रहे हैं जो उपभोक्तावादी संस्कृति की देन हैं । चूँकि गांव के सम्पन्न लोगों की सम्पन्नता भी सीमित होती है अब उनका सारा अतिरिक्त धन जो पहले सामाजिक कार्यों में खरच होता था वह निजी तामझाम पर खरच होने लगा है और लोग गाँव के छोटे से छोटे सामूहिक सेवा कार्य के लिए सरकारी सूत्रों पर आश्रित होने लगे हैं । इसके अलावा जो भी थोड़ा गाँवों के भीतर से उनके विकास के लिए प्राप्त हो सकता था , अब उद्योगपतियों की तिजोरियों में जा रहा है। इससे गाँवों की गरीबी दरिद्रता में बदलती जा रही है ।

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