essay  on  mere bachpan ke din

नमस्कार मित्र,


मनुष्य के बचपन के दिन बड़े सुनहरे होते हैं। ये वह दिन होते हैं, जिसकी मधुरता जीवनभर प्रसन्नता भरती रहती है। बचपन हर मनुष्य के जीवन का हिस्सा होता हैं। उसका बचपन मधुर्य और प्रेम से भरा होता है। उसमें शैतानियों, उछलकूद, हुदंगड़ का अपना ही मजा होता है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता, जिसने अपने बचपन में मौज-मस्ती न की हो।


 बचपन में माँ बड़ा दुलार किया करती थी। मेरा हर कार्य वह स्वयं किया करती थी। मुझे नहलाती थीं। खाना खिलाती थीं। आज बड़ी हो गई हूँ परन्तु माँ का दुलार बहुत याद आता है। एक दिन मेरे चोट लग जाने पर माँ ने मुझे नाना प्रकार की चीज़े दिलाई थी। माँ को हमेशा तंग किया करती थी। माँ बहुत डांटती परन्तु मेरे स्वभाव अंतर नहीं आता था। गुस्सा होने पर माँ की मार भी पड़ती थी परन्तु उनका दुलार उससे भी अधिक प्यारा हुआ करता था।


पापा रोज़ शाम को कार्यालय से आते हुए मेरे खाने के लिए कुछ न कुछ लाया करते थे। मैं बड़ी बेसब्री से उनका इंतजार किया करती थी। जब तक पापा नहीं आते थे, घर से बाहर नहीं जाती थी। माँ मुझे बहुत कहती की खेल आओ परन्तु मेरे सेहत पर असर नहीं पड़ता था। बस पापा आने चाहिए। पापा के आते ही उनके पैरे से लिपट जाती थी। पापा जानते थे कि मैं उनका इतंजार कर रही हूँ परन्तु वह जान-बूझकर मुछसे चीज़े छुपाते थे। मैं जब रूठ जाती तब मुझे मिला करती थीं। पापा मेरे लिए हमेशा रंग-बिरंगी गोलियां, टापियाँ, तो कभी चॉकलेट लाया करते थे। बड़ा मज़ा आता था।


उसके बाद तो दादाजी के साथ पार्क मे खेलने जाती थी। मेरी सभी सहेलियाँ वहाँ आया करती थी। वहाँ हम पकड़म-पकड़ाई खेला करते थे। कितने ही ऐसे खेल थे, जो हम खेलते और छोड़ देते थे। मेरी सभी सहेलियाँ प्यारी-प्यारी फॉर्क पहनकर आया करती थीं। दादाजी मेरे पीछे भाग-भागकर थक जाते थे। परन्तु हमें कोई असर नहीं होता था। दादाजी के साथ वो दिन आज नहीं है।


 

  • 17

its good bt i want some more essays on this topic.......

  • -2
What are you looking for?