essay on pustak ki atma katha

प्राचीनकाल से ही मनुष्य ज्ञान का भूखा रहा है। अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जीवनभर प्रयत्नशील रहना ही उसने सीखा है। उसने जो ज्ञान प्राप्त किया उसे लिपिबद्ध किया। उसकी ज्ञान पिपासा ने आने वाली पीढ़ियों को ज्ञान का अतुलनीय भंडार दिया। यह अतुलनीय भंडार पुस्तक के रूप में सहेजकर रखा गया। इसी भंडार ने आने वाली पीढ़ियों की ज्ञान पिपासा बुझाने का बीड़ा उठाया है।

मैं पुस्तक हूँ। मैं मनुष्य के जीवन का मुख्य आधार हूँ। मेरे बिना मनुष्य विकास और उन्नत्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। हमारे अंदर  लिखित ज्ञान मनुष्य को हर क्षेत्र से संबंधित जानकारियाँ देता है। हम उसकी विचारधारा को विकसित करती हैं। अपनी रूचि के अनुरूप मनुष्य अपना विषय क्षेत्र चुनता है। परन्तु यह विषय क्षेत्र उसकी जीविका का साधन है। वह सारी उम्र अन्य विषयों पर लिखित पुस्तकें पढ़कर अपने ज्ञान का विस्तार करता है।

मेरा जन्म एक ऐसे स्थान पर हुआ जहाँ अनगिनत पुस्तके बनती थी। मैं इतिहास की पुस्तक बनी और आठवीं कक्षा के बच्चों के लिए तैयार की गई। मरे अंदर इतिहास से संबंधित ढेरों जानकारियाँ सहेजकर रखी गई थी। सुंदर चित्रों के माध्यम से उन्हें दर्शाया भी गया था। बनने के पश्चात में पुस्तक विक्रेता के पास पहुँची। वहाँ से मुझे शोभा नाम की एक कन्या ने खरीदा। वह पुस्तकों से बहुत प्यार करती थी। उसने मुझे भी बहुत संभालकर रखा। मुझ पर सुंदर कवर चढ़ाया और नाम लिखा। मैं जब तक उसके पास रही बहुत सुख से रही। उसने मेरा प्रयोग किया परन्तु अच्छी तरह से। उसके पढ़ने के पश्चात में राहुल नाम के दूसरे बच्चे के पास गई। राहुल ने मेरा बड़ा बुरा हाल। मेरे पन्ने फाड़ दिए और पन्नों को पेन से लिखकर गंदा कर दिया। मैं हालत बहुत खराब हो गई। एक दिन उसने मुझे कबाड़ी को बेच दिया। वहाँ से मैं ऐसे स्थान पर गई जहाँ कागज़ को रिसाईकिल किया जाता था। वहाँ मुझे फाड़ कर समाप्त कर डाला। 

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