essay on satyasangati

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प्राचीन समय से धर्मग्रंथ तथा संत लोग मनुष्य को सत्संगति के लिए प्रेरित करते आए हैं। उनके अनुसार सत्संगति में बैठकर मूर्ख मनुष्य भी विद्वान बन जाता है। सत्संगति के बुरे प्रभाव नहीं देखे जाते हैं। यही कारण है कि इसे सत्संगति कहा गया है। सत्संगति में बैठकर मनुष्य कुछ न कुछ सीखता ही है। सत्संगति से तात्पर्य होता है अच्छी संगति। सत्संगति ऐसे लोगों की संगति कही जाती है, जिसमें मनुष्य अच्छे आचरण वाले लोगों के मध्य उठता-बैठता है। हम समाज में रहने वाले हैं। बचपन से ही हम संबंधियों, मित्रों पड़ोसियों के मध्य उठते-बैठते हैं। इनसे अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं तथा दूसरों के विचारों को ग्रहण करते हैं। हम अपने मतानुसार अच्छी बातों को ग्रहण कर बुरी बातों को नकार देते हैं। यह बात हुई एक परिपक्व व्यक्ति की। परन्तु एक छोटे बच्चे की स्थिति इससे भिन्न होती है। वह यह तय नहीं कर पाता है कि किस प्रकार की संगति उसके लिए उचित होती है। अतः वह गलत संगति में पड़ जाता है। वह ऐसे लोगों के साथ रहने लगता है, जिनका आचार-व्यवहार अच्छी नहीं होता। वे बुरी आदतों से ग्रस्त होते हैं। उनके साथ रहते-रहते वह भी इन विकारों का शिकार हो जाता है। उसके बाद यदि वह निकलना भी चाहे, तो लंबे समय तक बुरी संगति काली छाया के समान जीवन में बनी रहती है। हमारे संतों ने अनेक बार यह कहा है कि यदि अपना उत्थान और विकास चाहते हो तो विद्वान और अच्छे लोगों की संगति में विचरण करो। यह तुम्हारे व्यक्तित्व और जीवन को सुंदर तथा प्रगतिशील बना देगा। इस तरह से हम कह सकते हैं कि सत्संगति मनुष्य के विकास के लिए परम आवश्यक है।

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