mujhe " sakiyon aur sabad" ka hindi anuvad chahiye.....

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मित्र आपको एक साथ सभी साखियाँ उपलब्ध करवाना संभव नहीं हैं। आपकी सुविधा हेतु सबद दे दिए गए हैं। जिस साखी में आपको समस्या आ रही है, उसे हमें लिख भेजें। हम उसे आपको समझाने का प्रयास करेंगे। 

 

पहला सबद 

कबीरदास जी के अनुसार ईश्वर यही कहते हैं कि मुझे ढँढ़ने के लिए तू कहाँ-कहाँ भटकता रहता है। परन्तु तेरा यह भटकना व्यर्थ है क्योंकि तुझे यह ज्ञान ही नहीं है कि मैं तो तेरे ही पास में हूँ। यदि तू मुझे ढूँढ़ने मन्दिर, मस्जिद, काबा और कैलाश में जाता है तो सब बेकार है। मुझे बेकार के पूजा-पाठ से या फिर योग-बैराग से नहीं पाया जा सकता है। यदि तू सच्चे ह्दय से मुझे ढूँढना चाहेगा तो मैं पलभर में मिल जाऊँगा। क्योंकि मैं तो सदैव तेरे ह्दय और साँसों में वास करता हूँ। मैं इस संसार के प्रत्येक मनुष्य के अंदर विद्यमान हूँ। अतः मुझे ढूँढने के लिए तुम व्यर्थ के पूजा-पाठ और आडम्बर में मत पड़ो। तुम मुझे स्वयं में ही खोजो। मैं तो तुम्हारे पास ही हूँ। 

दूसरा सबद

कबीरदास जी के अनुसार ज्ञान मनुष्य के जीवन में विशेष महत्त्व रखता है। जब उसके जीवन में ज्ञान रूपी आँधी आती है तो उसके हृदय व मन में स्थित विकारों का नाश होने लगता है। इस ज्ञान की आँधी ने आते ही भम्र रूपी सारे छप्परों को उड़ा डाला है। इस ज्ञान की आँधी से माया के सभी बन्धन भी खुल गए हैं। ज्ञान की आँधी ने झूठा (मिथ्या) प्रेम, प्रभु को लेकर होने वाले सन्देह और मोह रूपी बालियाँ भी उखाड़ दी हैं। तृष्णा रूपी छत भी इस आँधी में टूट गई है। उसमें रखी कुबुद्धि रूपी बर्तन टूट गए हैं। कबीर आगे कहते हैं कि सन्तों ने बड़े जतन और युक्ति से इस छप्पर को बाँधा है। इस छप्पर की छत से एक बूंद भी पानी नहीं टपकता है। जबसे प्रभु हरि की गति अर्थात्‌ उनके विषय में जाना है, तबसे शरीर में स्थित सारा कूड़ा-कचरा बाहर निकल गया है। वह आगे कहते हैं, आँधी के पश्चात्‌ वर्षा जिस प्रकार सभी को जल से भिगो डालती है, उसी प्रकार ज्ञान के आने से सभी जीवात्मा प्रेम के रस में सरोबर हो जाते हैं। ऐसे भक्त अपने ईश्वर के स्मरण में लीन हो जाते हैं। कबीर दास जी कहते हैं कि ज्ञान रूपी सूरज के निकलते (उदय) ही अज्ञान रूपी अंधकार खत्म हो गया है। भाव यह है कि जब मनुष्य के जीवन में ज्ञान का आगमन होता है तो उसके मन व हृदय से सन्देह, झूठा प्रेम आदि मिथ्या भाव और विकार नष्ट हो जाते हैं। मोह-माया के बंधनों से वह मुक्त हो जाता है। तृष्णा तक उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाती। साधक प्रभु प्रेम में इतना रम जाता है कि सांसारिक, सुख-सुविधा, सुख-दुख उसको आहत व प्रसन्न नहीं कर पाते। प्रभु-भक्ति में लगकर वह मन से व शरीर से निर्मल और पवित्र हो जाता है। यह सब मनुष्य के जीवन में ज्ञान के आने से ही सम्भव हो पाता है।

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