nanhe kandho par bhari basto ka bojh

नमस्कार मित्र,

समय बदल रहा है और समय के साथ शिक्षा के स्तर में भी भारी बदलाव देखने को मिला है। पहले के समय में बच्चों के पास एक सिलेट और चाक हुआ करते थे। पुस्तकों के नाम पर एक-दो विषय की पुस्तकें हुआ करती थीं। दसवीं या बारहवीं तक पहुँचने पर पुस्तकों की संख्या में वृद्धि हुआ करती थी। लेकिन उस समय भी शिक्षा का स्तर बहुत उत्तम हुआ करता था। प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, सुमित्रानंदन पंत, डा. चंद्रशेखर वेंकट रामन, पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ऐसी हस्तियाँ हैं, जो उसी शिक्षा प्रणाली की देन हैं। लेकिन आज बेहतर शिक्षा प्रणाली के नाम पर नर्सरी से ही बच्चों के बस्तों का बोझ इतना होता कि वे कूली के समान बोझा ढोने जैसा लगता है। सातवीं कक्षा तक आते-आते बोझ और अधिक हो जाता है। इतना तो उनके स्वयं का वजन नहीं होता, जितना बस्ते का बोझ होता है। उनके नन्हें कंधे इस बोझ से दब रहे हैं। आज छोटी कक्षाओं से ही पुस्तकों की संख्या सात-आठ होती है, उस पर कॉपियों का बोझ अलग से होता है। गृहकार्य और कक्षाकार्य की अलग से कॉपियाँ होती हैं। इस कारण से उनके पास अधिक गृहकार्य और कक्षाकार्य होता है। उनको करने में ही सारा समय व्यतीत हो जाता है। उनके पास खेलने का समय ही नहीं बचता है। विद्यालय का कार्य है बच्चों में ज्ञान को बढ़ाना लेकिन ज्ञान के स्थान पर बोझ को बढ़ाया जा रहा है। इतनी पुस्तकें देखकर बच्चा स्वयं भी पढ़ाई से भगाने लगता है। विद्यालय से आते और जाते समय वह किताबों के बोझ से ही इतना थक चूका होता है कि पढ़ाई में ध्यान ही नहीं लगा पाता। इस तरह बच्चों में मानसिक दबाव बना रहता है। अत्यधिक बोझ उनके शारीरिक विकास को रोकते हैं। उनमें बचपन से ही कंधों में दर्द की शिकायत देखने को मिलती है। अधिक बोझ से उनकी गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर भी दबाव बनता है, उनके लिए यह स्थिति सही नहीं है। शिक्षा विभाग को चाहिए की इस विषय को गंभीरता से ले। शिक्षा बच्चों के लिए नितान्त आवश्यक है परन्तु शिक्षा से उनके मन और शरीर पर दबाव बने यह सही नहीं है। विद्यालय यदि पुस्तकों की संख्या बढ़ाता है, तो उनका अध्ययन और कार्य विद्यालय में ही करवाए। बच्चों को बस्तों के बोझ से न दबाएँ। उनके बचपन को निखरने, खेलने और आसपास के वातावरण को समझने का अवसर देना चाहिए।

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