bihari ji ke doho ka bhaav spasht kijiye (kalapaksh aur bhaavpaksh ke saath)

मित्र!
प्रत्येक दोहे का कल्पनापक्ष और भावपक्ष देना संभव नहीं है। हमारी वेबसाइट में देखिए हमने प्रसंग सहित व्याख्या में भावपक्ष दिया हुआ है। आप वहाँ से सहायता प्राप्त कर सकते हैं।

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  • बिहारी रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं. बिहारी सतसई उनकी एक मुख्य कृति है. बिहारी की शब्द आभिव्यक्ति अत्यंत मधुर और मनमोहक हैं. इनका जन्म 1595 में हुआ था. तो आइए बिहारी के कुछ प्रसिद्ध दोहों को अर्थ सहित जानते हैं.
    बिहारी के दोहे अर्थ सहित :
  • कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय ।
    तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय ।।
    अर्थात – हे कृष्ण, मैं कब से दीन-हीन होकर तुम्हें बुला रहा हूँ लेकिन तुम हो कि मेरी मदद हीं नहीं कर रहे हो. हे जगतगुरु, हे जग के नायक क्या तुमको भी इस संसार की हवा लग गई है ? क्या तुम भी इस दुनिया के जैसे हो गए हो ?
  • नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि ।
    तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि ।।
    अर्थात – हे कृष्ण, मुझे लगता है कि अब तुमको आनाकानी करनी अच्छी लगने लगी है और मेरी पुकार फीकी पड़ गई है. मुझे लगता है कि एक बार हाथी को तारने के बाद तुमने भक्तों को तारना छोड़ हीं दिया है.
 

 

  • कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच ।
    नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच ।।
    अर्थात – चाहे करोड़ो बार भी कोई व्यक्ति प्रयास क्यों न कर ले, लेकिन वह किसी भी चीज या व्यक्ति का मूल स्वभाव नहीं बदल सकता है. ठीक वैसे हीं जैसे नल में पानी बलपूर्वक ऊपर तो चढ़ जाता है लेकिन फिर भी अपने स्वभाव के अनुसार बहता नीचे की ओर हीं है.
  • चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न स्नेह गम्भीर
    को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर ॥
    अर्थात – यह जोड़ी चिरंजीवी रहे, और क्यों न इनके बीच गहरा प्रेम हो. एक वृषभान की पुत्री हैं, तो दूसरे हलधर(बलराम) के भाई हैं.
    वृषभान राधा के पिता का नाम है.
  • नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल ।
    अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल ।।
    अर्थात – न हीं इस काल में फूल में पराग है, न तो मीठी मधु हीं है. अगर अभी से भौंरा फूल की कली में हीं खोया रहेगा तो आगे न जाने क्या होगा. दूसरे शब्दों में, हे राजन अभी तो रानी नई-नई हैं, अभी तो उनकी  युवावस्था आनी बाकि है. अगर आप अभी से हीं रानी में खोए रहेंगे, तो आगे क्या हाल होगा.
    राजा जय सिंह अपनी नई पत्नी के प्रेम में इस कदर खो गए थे कि राज्य की ओर उन्होंने बिल्कुल ध्यान देना बंद कर दिया था. तब बिहारी ने इस दोहे को लिखा।
  • या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ ।
    ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ ॥
    अर्थात – इस अनुरागी चित्त की गति कोई नहीं समझता है. इस चित्त पर जैसे-जैसे श्याम रंग (कृष्ण का रंग) चढ़ता है, वैसे-वैसे यह उजला होता जाता है.
  • काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन, आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा ।।
    अर्थात – हे सुहागन तुम काजल मत लगाओ, कहीं तुम्हारी उँगली तुम्हारे गँड़ासे जैसी आँख से कट न जाए.
    गँड़ासा – एक हथियार।
  • सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर ।
    देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर ।।
    अर्थात – सतसई के दोहे वैसे हीं हैं, जैसे नावक के तीर है. ये देखने में छोटे लगते हैं, लेकिन इनमें बड़ी अर्थपूर्ण बातें छिपी होती है.
    नावक – एक पुराने जमाने का तीर
  • मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल ।
    यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल ।।
    अर्थात – हे कृष्ण, तुम्हारे सिर पर मोर मुकुट हो, तुम पीली धोती पहने रहो, तुम्हारे हाथ में मुरली हो और तुम्हारे गले में माला हो. इसी तरह (इसी रूप में) कृष्ण तुम मेरे मन हमेशा बसे रहो.
  • मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय ।
    जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय ।।
    अर्थात – हे राधा, तुम्हारे शरीर की छाया पड़ने से तो कृष्ण भी खुश हो जाते हैं. इसलिए तुम मेरी भवबाधा (परेशानी) दूर करो.
  • बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय ।
    सौंह करै, भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाय ॥
    अर्थात – गोपियों ने कृष्ण की मुरली छिपा दी है. और कृष्ण के मुरली माँगने पर वे उनसे स्नेह करती हैं, भौंहें से आपस में इशारे करके हँसती हैं. कृष्ण के बहुत बोलने पर वो मुरली लौटने को तैयार हो जाती हैं, लेकिन फिर मुरली को वापस छिपा लेती हैं.
  • कहति नटति रीझति खिझति, मिलति खिलति लजि जात ।
    भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात ॥
    अर्थात – नायिका नायक से बातें करती है, नाटक करती है, रीझती है, नायक से थोड़ा खीझती है, वह नायक से मिलती है, ख़ुशी से खिल जाती है, और शरमा जाती है. भरी महफिल में नायक और नायिका के बीच में आँखों से हीं बातें होती है.
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