वर्षा ऋतू की विदाई के साथ हरी भरी प्रकृति और शीत ऋतू की सुनाई देने वाली दस्तक के बीच त्योहारों का जो सिलसिला शूरू होता है वह शीत ऋतू की विदाई के साथ ही खत्म हो पाता है | लेकिन वक्त के साथ हमारे इन त्योहारों का स्वरूप तेजी से बदल रहा है | सही अर्थो में यह बदलता स्वरूप हमे त्यौहार के सच्चे उल्लास से कही दूर ले जा रहा है |
अगर थोडा पीछे देखे तो पता चलता है कि कुछ समय पहले दीपावली की तैयारिया महीना भर पहले से ही शुरू हो जाया करती थी | महिलाये दीवारों , दरवाजो और फर्श को सजाने का काम स्वयं करती थी लेकिन आज कहा है हाथो की वह सजावट | बड़े उत्साह के साथ दीये खरीदे जाते | उन्हें तैयार किया जाता और फिर तेल और बाती डाल कर उनसे पुरे घर को दुल्हन की तरह सजा दिया जाता था |
लेकिन अब किसे है इतनी फुर्सत | बिजली के रंगीन बल्बों की एक झालर डाल क्र सजावट कर दी जाती है | लेकिन कहा दीये की नन्ही लौ का मुंडेर-मुंडेर टिमटिमाते जलना और कहा बिजली के गुस्सैल बल्बों का जलना बुझना | परन्तु यही तो बदलाव की एह बयार जिसने त्योहारों के पारम्परिक स्वरूप को डस लिया है | यही नही , अब कहा है पकवानों की खुशबु और खीर से भरी बड़ी बड़ी थालिया जो बच्चो को कई दिन तक त्यौहार का मजा देते थे |
दरअसल आज हमारे जीने के तरीका ही बदल गया है | इस नई जीवन शैली ने हमे अपने त्योहारों में निहित स्वाभाविक उल्लास से काट दिया है | अब तो लोग दीपावली के दिन ही पठाखे और मिठाइया खरीदने दौड़ते है | मिठाई भी ऐसी की चार दिन तक रखना मुश्किल हो जाए | खुशियों का यह पर्व अब फिजूलखर्ची का पर्व ही बनकर रह गया है |