DHUL KI MAHIMA AUR UPYOGITA KA VARNAN KARE

AAJ KE BACCHO MEIN SRIJNATMAK SOCH KI KAMI PAR ANUCHED LIKHEIN .

KUCH SANKET BINDU DEIN .

YE MAT LIKHEIN KI AAP EK BACCHE HAI AUR APNE VICHAAR LIKHEN

धूल भारतीय ग्रामीण समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। गाय के खुरों को छूने वाली धूल तो विशेष रूप से पवित्र मानी जाती है। लोग इसका संसर्ग पाने के लिए आतुर रहते हैं। यह यदि खेतों में है, तो मनुष्य के लिए विभिन्न तरह के खाद्य पदार्थ को उत्पन्न करती है। बच्चे के मुख में है, तो उसे अनुपम सौंदर्य प्रदान करती है। पहलवान के शरीर को सुदृढ़ बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, तो वहीं कुमार के बर्तनों में विभिन्न आकार के रूप में विद्यमान हो जाती है। धूल की उपयोगिता और महिमा अकथनीय है। प्राचीन काल में लोग इस सौंदर्य प्रसाधन के रूप में प्रयोग करते थे। परन्तु समय बदल रहा है शहरी सभ्यता ने इसके अस्तित्व को नकार इसे गंद की श्रेणी में ला खड़ा किया है। यही कारण है कि आज के बच्चे भी इसे उसी प्रकार से देखने लगे हैं। इससे बच्चों में सृजनात्मकता की कमी होने लगी है। बच्चे प्राय: ऐसे खिलौनों से खेलते हैं, जो उनका मनोरंजन तो करते हैं, परन्तु उनमें सृजन करने की  क्षमता को कम करते हैं। ग्रामीण स्थानों के बच्चे इस विषय में अधिक सक्रिय होते हैं। वह मिट्टी में खेलते हैं अवश्य है परन्तु उससे विभिन्न तरह के खिलौने, घर आदि बनाते हैं यह उनके बौद्धिक विकास के लिए परम आवश्यक होता है। प्रकृति को सबसे बड़ा सृजनकर्ता कहा जाता है क्योंकि उसके आविष्कार हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं। उसकी सृजन शक्ति का कोई दूसरा दावेदार नहीं है। बच्चों को जहाँ प्रकृति का सानिध्य मिलता है, वहाँ उनकी सोच और कार्यक्षमता विकसित होती है। परन्तु शहरी जीवन में सीमेंट की इमारतों ने उन्हें अकेलेपन तथा आधुनिक खिलौनों के अतिरिक्त कुछ नहीं दिया है। यही कारण है कि उनमें सृजनात्मक क्षमता की कमी है।

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