Hindi vasha  ke  upar nibandh

हिन्दी एक भाषा है, जिसकी लिपि 'देवनागरी' है। 'हिन्दी' हिन्दुस्तान की पहचान है। वैसे भारत में असंख्य भाषाएँ बोली जाती हैं परन्तु हिन्दी इन सबमें विशिष्ट है। इस भाषा के माध्यम से पूरा भारत आपस में जुड़ा हुआ है। हिन्दी का जन्म ऐसे ही नहीं हुआ, यह विकास के विभिन्न चरणों से गुजरती हुई, इस शिखर पर आसीन हुई है।

भारत में जब मुगलों का शासन आरंभ हुआ, तब उन्होंने राज-काज की भाषा का सम्मान उर्दू-फ़ारसी को दिया। इसके पश्चात् अंग्रेजों का शासनकाल आरम्भ हुआ। उन्हें उर्दू-फ़ारसी में राज-काज संभालने में असुविधा हुई। अत: उन्होंने राज-काज की भाषा अंग्रेज़ी को बना दिया। ऐसा इसलिए भी किया गया क्योंकि हर शासक अपनी बात को प्रजा पर थोपना चाहते थे। इस तरह प्रजा में सरलतापूर्वक हीनता उत्पन्न की जा सकती थी। देश विभिन्न जातियों और धर्मों में बंटा हुआ था। स्वतंत्रता सेनानियों को ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस हुई, जो उन्हें एकता के सूत्र में पिरो सके और जन-जन की भाषा बन जाए। हिन्दी भाषा में उन्हें ये सभी गुण नज़र आए। फिर क्या था, हिन्दी जन-जन की भाषा बन गई। स्वतंत्रता की लड़ाई में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

एक लम्बे अन्तराल के पश्चात भारत ने गुलामी की बेड़ियाँ को तोड़ते हुए स्वयं का स्वतन्त्र अस्तित्व ढूँढा और आज़ाद देश बन गया। आज़ाद भारत ने नए सिरे से अपना विकास आरम्भ किया। देश को एक नई रूप-रेखा की आवश्यकता थी। अभी तक तो वह दूसरों के नियम कानूनों को निभा रहा था। अत: सर्वप्रथम अपने देश को एकत्र कर उसका संविधान निर्माण किया गया, तभी से हिन्दी के विकास का क्रम आरम्भ हुआ। संविधान में हिन्दी को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया था। 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया।

14 सितंबर का दिन प्रतिवर्ष 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन हिंदी को संघ की राजभाषा का स्थान मिला था इसलिए यह हमारे लिए गौरवपूर्ण दिन है। आज के दिन हम इसे पर्व के रूप में मना कर विश्व में हिंदी के प्रति जागृति उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं। इस दिन प्रदर्शनी, मेले, गोष्ठी, सम्मेलन आदि का आयोजन किया जाता हैं। हिंदी कवियों का उत्साहवर्धन करने के लिए इस दिन उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया जाता है। हिंदी में ही कामकाज हो, इसके लिए हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है। परन्तु इतना सब करने के बावजूद भी हिन्दी अपने ही देश में अपने अस्तित्व को खो रही है।

हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा होती है। सारा सरकारी तथा अर्ध-सरकारी काम उसी भाषा में किया जाता है। वही शिक्षा का माध्यम भी है। कोई भी देश अपनी राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही विकास-पथ पर अग्रसर होता है। संसार के सभी देशों ने अपने देश की भाषा के माध्यम से ही अनेक आविष्कार किए हैं। लेकिन विडबंना देखिए कि हिन्दी भाषा आज़ादी के 63 साल गुज़र जाने के पश्चात् भी अपना सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकी है। आज़ादी के समय हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के प्रयास का भरसक विरोध किया गया और तर्क दिया गया कि इससे प्रांतीय भाषाएँ पिछड़ जाएँगी। अनुच्छेद 343 में लिखा गया है- संघ की राजभाषा हिन्दी होगी और लिपि देवनागरी होगी परन्तु बाद में इसके साथ जोड़ दिया गया कि संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग होता रहेगा। इस तरह हिंदी को 15 वर्ष का वनवास मिल गया। इस पर भी पंडित जवाहरलाल नेहरु ने 1963 में संशोधन कर दिया कि जब तक एक भी राज्य हिंदी का विरोध करेगा, हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं होगी। हिंदी के सच्चे सेवकों ने इसका विरोध भी किया। कुछ समय बाद प्रांतीय भाषाओं में विवाद खड़ा हो गया। उत्तर और दक्षिण में हिंदी का विरोध हुआ और इन दो पाटों में हिंदी पिसने लगी। आज भी हिंदी वनवासिनी है।

हमारे देश के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित नेता व अभिनेतागण अपनी भाषा में वक्तव्य देने से शर्माते हैं, तो वह कैसे स्वयं को भारत में प्रतिष्ठित कर पाएगी। भारतीयों द्वारा ही हिन्दी अपमानित हो रही है। पिछले कुछ समय से अखिल भारतीय भाषा संरक्षण सगंठन, हिंदी तथा अन्य भाषाओं को परीक्षणों का माध्यम बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है। लेकिन एक दिन ऐसा अवश्य आएगा, जब जनता सरकार को बाध्य कर देगी और हिंदी अपना स्थान अवश्य प्राप्त करेगी।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त, निराला जी, यशपाल जी, और सबसे महत्वपूर्ण प्रेमचंद जैसे लेखकों ने हिन्दी में महत्वपूर्ण रचनाओं द्वारा इस भाषा को अमर कर दिया है।

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