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Hi!
इस कविता का कवि अन्य कवियों से अनुरोध करते हुए कहते हैं कि हे कवियों तुम ऐसा गीत सुनाओ जिससे सारे जनमानस के हृदय में क्रांति का भाव उत्पन्न हो जाए। कवि अत्याचारियों को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि सावधान! अब मेरी वीणा में चिनगारियाँ आ बैठी हैं। अत्यधिक कर्कश गान के कारण वीणा की तारें टूट गई हैं, जिसके कारण मेरी अंगुलियाँ अकड़ गई हैं। अब मैं ऐसे गीतों को गा व बजा रहा हूँ जिससे सोई हुई जनता को जागृत कर सकूँ। अब मेरे गायन व तानों में क्रांति के स्वर व गीत ही मुखरित होंगे। फिर चाहे कुछ भी हो जाए।
वह कहते हैं पहले मेरा कंठ ऐसे गीत गाने के लिए रुका हुआ था। मैं यही सोचता था कि शायद स्थिति जल्दी ही ठीक हो जाएगी। इसलिए मैं मारक गीत नहीं लिख पाता था। शासन के बढ़ते अत्याचार ने इस भाव को समाप्त कर दिया है। मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं क्रांति के गीत लिखूँगा। मेरे इन गीतों से इस देश की जनता में आग लगेगी जो चारों तरफ़ हाहाकार मचा देगी। अब तो युद्ध की स्थिति निश्चित ही है। कवि आगे कहता है कि मेरे क्रांति के गीत इतने शक्तिशाली हैं कि उनसे निकलने वाले क्रांति के स्वर ने छोटे-मोटे झाड़ और झंखाड़ अर्थात्‌ सदियों से कायम व्यर्थ की रुढीवादी परंपराओं को जला दिया है। वह कहता है मेरे हृदय के क्रोध से जो यह तान व गीत निकला है वह इनके अत्याचारों से तंग आकर निकला है। मैं स्वयं भीतर ही भीतर क्रोध व कुंठा से भर गया था। अतः मैंने यही निश्चय किया है कि शांत रहकर इनसे नहीं निपटा जा सकता है। मेरा कर्त्तव्य है कि अपनी कविता के माध्यम से लोगों को जागृत करुँ और मैं वही प्रयास कर रहा हूँ।
कवि के अनुसार उसके द्वारा गाए क्रांति के गीत से प्रत्येक जनमानस के कण-कण और रोम-रोम से वही ध्वनि वही तान निकलती है अर्थात्‌ उसके गीतों ने देश के जन-मानस के मन में स्वतंत्रता का अलख जगा दिया है। अब वह भी उसके साथ क्रांति का गीत गा रहे हैं। वह कहता है कि पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग ही नहीं बल्कि उनके सर पर जड़ित चिंतामणि भी मेरे इस गीत को गा रही है। अर्थात्‌ इससे प्रभावित है। कवि कहते हैं कि मैंने प्रकृति के रहस्य को देख व समझ लिया है कि महाविनाश के अंदर ही सृजन का सूत्र होता है। अर्थात्‌ विकास के लिए पुरानी-परंपराओं का विनाश जरुरी है, तभी देश का विकास संभव है।
आशा करती हूँ कि आपको प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा।
 
ढ़ेरों शुभकामनाएँ?  

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