Kavyitri deepak ko vihas vihas jalne ko kyun kehti hai?

महादेवी जी आकाश में टिमटिमाते तारे रूपी संसार के प्राणियों को देखकर कहती हैं कि ये सब तारे स्नेह से रहित हैं, इनके हृदय में ईश्वर की भक्ति व उनके प्रति आस्था रूपी तेल नहीं है। यदि होता तो ये सब द्वेष व ईष्या की अग्नि में नहीं जल रहे होते। वह आगे कहती हैं कि जल से भरे सागर का हृदय ईश्वर से विलग हुआ विरह की अग्नि में जल रहा है तथा भाप बनकर आकाश में बादल का रूप ले लिया है। अर्थात्‌ सागर रूपी समस्त संसार ईश्वर भक्ति न होने से परेशान व दुखी है। उनके हृदय की वेदना निकल कर बादल का रूप ले चुकी है। वे दुखी हो कर जल रहे हैं मानों बादलों के बीच बिजली चमक रही हो। इसलिए कवयित्री दीपक को प्रसन्नता से जलने के (विहँस-विहँस कर) लिए प्रेरित करती हैं ताकि संसार के समस्त प्राणियों का मार्ग दर्शन किया जा सके, उनके जलते हुए हृदय के दुख को कम किया जा सके।  

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