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नमस्कार मित्र!
एक साथ व्याख्या और काव्य सौंदर्य देना संभव नहीं है। अत: हम आपको व्याख्या भेज रहे हैं।
व्याख्या - ललद्यद जी कहती है कि मैं अपना कच्चा धागा रूपी शरीर खींच रही हूँ। अर्थात्‌ मुझे इस शरीर से कोई मोह नहीं है। मैं तो विवश होकर इस शरीर के द्वारा जीवन रूपी नाव खींच रही हूँ। ललद्यद जी आगे कहती हैं कि मैं इसी आशा में ये जीवन जी रही हूँ कि कब मेरी करूण पुकार सुनकर परम-पिता परमेश्वर मुझे अपने पास बुलाएगा। कब मैं इस जीवन व इस शरीर से मुक्ति पाकर प्रभु में विलीन हो जाऊँगी। आगे कवियत्री कहती हैं कि जिस प्रकार मिट्टी के कच्चे बर्तन (सकोरे) से पानी टपकता है उसी प्रकार मेरा प्रयास बेकार हो रहा है। अर्थात्‌ मैंने अपने प्रभु को पाने के लिए पूजा-व्रत, तप और योग जो भी किया वो सब विफल हो गए। वह कहती हैं इस विफलता से मेरे हृदय में कसक (हूक) उठती है कि मैं अपने प्रभु के घर नहीं जा पाऊँगी।
व्याख्या -ललद्यद जी कहती हैं कि इस संसार के सुख-भोग का तू जितना उपयोग करेगा। तुझे इनके भोग से कुछ प्राप्त नहीं होगा अर्थात्‌ तू अपना जीवन इनमें रमकर बर्बाद करे देगा। यदि तू इनका उपयोग (भोग) नहीं करता तो अन्दर तुझे इस बात का अहंकार हो जाएगा कि तू ही सबसे बड़ा है। मनुष्य व्रत-पूजा करता है। उसे इस बात का अहंकार हो जाता है कि मैंने इतने दिनों तक तपस्या की, इतने दिनों का व्रत रखा जो मन में अहंकार के भाव को उत्पन्न करता है। कवियत्री के अनुसार इन दोनों अवस्थाओं में मनुष्य को नुकसान ही होगा। अतः वही व्यक्ति इन अवस्थाओं से निकल सकता है जो बाहरी इंद्रियों तथा अन्दुरनी (अन्तःकरण) इंद्रियों पर स्वयं का नियत्रण रख सकेगा। जब वह अपनी सभी इंद्रियों पर नियत्रंण कर पाएगा तभी उसे उस दरवाजे की साकल (चाबी) मिल पाएगी और वह ईश्वर को प्राप्त कर पाएगा। अर्थात्‌ ईश्वर उसके समीप होंगे।
व्याख्या -वह कहती है कि मैंने प्रभु से मिलने का जो रास्ता अपनाया था। वह सही न था। आरम्भ में प्रभु भक्ति का सीधा सरल रास्ता ही अपना रही थी परन्तु जब इसमें आगे बढ़ी तो मैंने सीधी राह (मार्ग) के स्थान पर गलत रास्ता अपना लिया। वह अपनी बात को आगे स्पष्ट करती हैं, मैंने योग का रास्ता अपनाया था। योग में मैंने ध्यान लगाया परन्तु मेरा सारा समय बर्बाद हो गया; अर्थात्‌ सुषुम्ना नाड़ी रूपी पुल में अपना सारा ध्यान केन्द्रित कर दिया। उसे केन्द्रित करते-करते अर्थात्‌ खड़े-खड़े मेरा सारा समय (जीवन) बर्बाद हो गया। और जब ईश्वर से मिलने का मौका आया तो मेरी जेब में एक कौड़ी भी नहीं थी। अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं माझी (नाव वाले) को क्या दूँ कि वो मुझे नदी के पार छोड़ दे। अर्थात्‌ मेरे अन्दर इतनी शक्ति ही नहीं बची है कि आगे और योग साधना कर पाती और ईश्वर को प्राप्त कर लेती।
व्याख्या -ललद्यद जी कहती हैं कि हे मनुष्य! इस जगत के थल-थल (कण-कण) में शिव बसता है अर्थात्‌ भगवान इस संसार में चारों तरफ व्याप्त हैं फिर वह चाहे हिन्दुओं के हों या मुसलमानों के। वह एक ही भगवान हैं। अतः तुम प्रभु को लेकर आपस में मत लड़ो। वह कहती हैं इस तरह का भेदभाव करना तो अज्ञानी लोगों का काम है। यदि तुम कहते हो कि तुम सब जानते हो तो तुम्हें सर्वप्रथम खुद को जानना पड़ेगा। जिस दिन तुम स्वयं को पहचान लोगे उस दिन तुम्हें ईश्वर की पहचान हो जाएगी। अर्थात्‌ उस दिन तुम्हें भगवान मिल जाएँगे।
ढेरों शुभकामनाएँ!

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