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प्रस्तुत पाठ में लेखिका ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण तथ्यों को उभारा है। लेखिका का जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव हुआ था परन्तु उनकी यादें अजमेर के ब्रह्मापुरी मोहल्ले के एक-दो मंजिला मकान में पिता के बिगड़ी हुई मनःस्थिति से शुरू हुई। आरम्भ में लेखिका के पिता इंदौर में रहते थे, वहाँ संपन्न तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। काँग्रेस से जुड़े होने के साथ वे समाज सेवा से भी जुड़े थे परन्तु किसी के द्वारा धोखा दिए जाने पर वे आर्थिक मुसीबत में फँस गए और अजमेर आ गए। अपने जमाने के अलग तरह के अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोष को पूरा करने बाद भी जब उन्हें धन नही मिला तो सकरात्मकता घटती चली गयी। वे बेहद क्रोधी, जिद्दी और शक्की हो गए, जब तब वे अपना गुस्सा लेखिका के बिन पढ़ी माँ पर उतारने के साथ-साथ अपने बच्चों पर भी उतारने लगे।

पांच भाई-बहनों में लेखिका सबसे छोटी थीं। काम उम्र में उनकी बड़ी बहन की शादी होने के कारण लेखिका के पास ज्यादा उनकी यादें नही थीं। लेखिका काली थीं तथा उनकी बड़ी बहन सुशीला के गोरी होने के कारण पिता हमेशा उनकी तुलना लेखिका से किया करते तथा उन्हें नीचा दिखाते। इस हीनता की भावना ने उनमें विशेष बनने की लगन उत्पन्न की परन्तु लेखकीय उपलब्धियाँ मिलने पर भी वह इससे उबार नही पाई। बड़ी बहन के विवाह तथा भाइयों के पढ़ने के लिए बाहर जाने पर पिता का ध्यान लेखिका पर केंद्रित हुआ। पिता ने उन्हें रसोई में समय ख़राब न कर देश दुनिया का हाल जानने के लिए प्रेरित किया। घर में जब कभी विभिन्न राजनितिक पार्टयों के जमावड़े होते और बहस होती तो लेखिका के पिता उन्हें उस बहस में  बैठाते जिससे उनके अंदर देशभक्ति की भावना जगी।

सन 1945 में सावित्री गर्ल्स कॉलेज के प्रथम वर्ष में हिंदी प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने लेखिका में न केवल हिंदी साहित्य के प्रति रूचि जगाई बल्कि साहित्य के सच को जीवन में उतारने के लिए प्रेरित भी किया। सन 1946-1947 के दिनों में लेखिका ने घर से बाहर निकलकर देशसेवा में सक्रीय भूमिका निभायी। हड़तालों, जुलूसों व भाषणों में भाग लेने से छात्राएँ भी प्रभावित होकर कॉलेजों का बहिष्कार करने लगीं। प्रिंसिपल ने कॉलेज से निकाल जाने से पहले पिता को बुलाकर शिकायत की तो वे क्रोधित होने के बजाय लेखिका के नेतृत्व शक्ति को देखकर गद्गद हो गए। एक बार जब पिता ने अजमेर के वयस्त चौराहे पर बेटी के भाषण की बात अपने पिछड़े मित्र से सुनी जिसने उन्हें मान-मर्यादा का लिहाज करने को कहा तो उनके पिता गुस्सा हो गए परन्तु रात को जब यही बात उनके एक और अभिन्न मित्र ने लेखिका की बड़ाई करते हुए कहा जिससे लेखिका के पिता ने गौरवान्वित महसूस किया।

सन 1947 के मई महीने में कॉलेज ने लेखिका समेत दो-तीन छात्राओं का प्रवेश थर्ड ईयर में हुड़दंग की कारण निषिद्ध कर दिया परन्तु लेखिका और उनके मित्रों ने बाहर भी इतना हुड़दंग मचाया की आखिर उन्हें प्रवेश लेना ही पड़ा। यह ख़ुशी लेखिका को उतना खुश न कर पायी जितना आजादी की ख़ुशी ने दी। उन्होंने इसे शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया है।

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