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उन्हें प्रणाम
भेद गया है दीन-अश्रु से जिनका मर्म,
मुहताजों के साथ न जिनको आती शर्म,
किसी देश में किसी वेश में करते कर्म,
मानवता का संस्थापन ही है जिनका धर्म!
​ज्ञात नहीं हैं जिनके नाम!
​उन्हें प्रणाम! सतत प्रणाम!
​कोटि कोटि नंगों, भिखमंगों के जो साथ,
खड़े हुए हैं कंधा जोड़े, उन्नत माथ।

hi
 
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Kabhi kin ko 17 Pranam ka raha hai
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