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aajtak.in [Edited By: अमरेश सौरभ] | नई दिल्‍ली, 27 नवम्बर 2014 | अपडेटेड: 17:14 IST टैग्स: मुंशी प्रेमचंद| उपन्‍यास| कहानी| गोदान
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        मुशी प्रेमचंद कथाकार मुंशी प्रेमचंद देश ही नहीं, दुनियाभर में विख्यात हुए और 'कथा सम्राट' कहलाए. प्रेमचंद की जयंती 31 जुलाई को बड़े ही उत्‍साह से मनाई जा रही है. इस खास मौके पर उनकी कहानी 'दो बैलों की कथा' पढ़कर अपनी यादें ताजा कर लीजिए...

कहानी: दो बैलों की कथा
जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है. हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं. गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता. गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है. कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा. जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी नहीं दिखाई देगी. वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता है, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा. उसके चेहरे पर स्थाई विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है. सुख-दुःख, हानि-लाभ किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा. ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है. सद्गुणों का इतना अनादर!
कदाचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है. देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्या दुर्दशा हो रही है ? क्यों अमरीका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं फिर भी बदनाम हैं. कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं. अगर वे ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते तो शायद सभ्य कहलाने लगते. जापान की मिसाल सामने है. एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया. लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है. और वह है 'बैल'. जिस अर्थ में हम 'गधा' का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में 'बछिया के ताऊ' का भी प्रयोग करते हैं. कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफी में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है. बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है. और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएवं उसका स्थान गधे से नीचा है.
झूरी क पास दो बैल थे- हीरा और मोती. देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊंचे. बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था. दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते थे. एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते. अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है. दोनों एक-दूसरे को चाटकर सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोनों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है. इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफसी, कुछ हल्की-सी रहती है, फिर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता. जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस समय हर एक की चेष्टा होती कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे.
दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूट कर अपनी थकान मिटा लिया करते, नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे. एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था.
संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया. बैलों को क्या मालूम, वे कहाँ भेजे जा रहे हैं. समझे, मालिक ने हमें बेच दिया. अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने, पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दांतों पसीना आ गया. पीछे से हांकता तो दोनों दाएँ-बाँए भागते, पगहिया पकड़कर आगे से खींचता तो दोनों पीछे की ओर जोर लगाते. मारता तो दोनों सींगे नीची करके हुंकारते. अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती तो झूरी से पूछते-तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो ?
हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी. अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते. हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था. हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की. तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथ क्यों बेंच दिया ?
संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे. दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नांद में लगाए गए तो एक ने भी उसमें मुंह नहीं डाला. दिल भारी हो रहा था. जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया. यह नया घर, नया गांव, नए आदमी उन्हें बेगाने-से लगते थे.
दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये. जब गांव में सोता पड़ गया तो दोनों ने जोर मारकर पगहा तुड़ा डाले और घर की तरफ चले. पगहे बहुत मजबूत थे. अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा, पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी. एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं.
झूरी प्रातः काल सो कर उठा तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं. दोनों की गरदनों में आधा-आधा गरांव लटक रहा था. घुटने तक पांव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है.
झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद हो गया. दौड़कर उन्हें गले लगा लिया. प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बड़ा ही मनोहर था.
घर और गाँव के लड़के जमा हो गए. और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे. गांव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्त्वपूर्ण थी, बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों का अभिनन्दन पत्र देना चाहिए. कोई अपने घर से रोटियां लाया, कोई गुड़, कोई चोकर, कोई भूसी.
एक बालक ने कहा- ''ऐसे बैल किसी के पास न होंगे.''
दूसरे ने समर्थन किया- ''इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए.'
तीसरा बोला- 'बैल नहीं हैं वे, उस जन्म के आदमी हैं.'
इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस नहीं हुआ. झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा तो जल उठी. बोली -'कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहां काम न किया, भाग खड़े हुए.'
झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका-'नमक हराम क्यों हैं ? चारा-दाना न दिया होगा तो क्या करते ?'
स्त्री ने रोब के साथ कहा-'बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं.'
झूरी ने चिढ़ाया-'चारा मिलता तो क्यों भागते ?'
स्त्री चिढ़ गयी-'भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैल को सहलाते नहीं, खिलाते हैं तो रगड़कर जोतते भी हैं. ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले. अब देखूं कहां से खली और चोकर मिलता है. सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूंगी, खाएं चाहें मरें.'
वही हुआ. मजूर की बड़ी ताकीद की गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए.
बैलों ने नांद में मुंह डाला तो फीका-फीका, न कोई चिकनाहट, न कोई रस !
क्या खाएं ? आशा-भरी आंखों से द्वार की ओर ताकने लगे. झूरी ने मजूर से कहा-'थोड़ी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे ?'
'मालकिन मुझे मार ही डालेंगी.'
'चुराकर डाल आ.'
'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे.'
दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला. अबकी उसने दोनों को गाड़ी में जोता.
दो-चार बार मोती ने गाड़ी को खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया. वह ज्यादा सहनशील था.
संध्या-समय घर पहुंचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बांधा और कल की शरारत का मजा चखाया फिर वही सूखा भूसा डाल दिया. अपने दोनों बालों को खली चूनी सब कुछ दी.
दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था. झूरी ने इन्हें फूल की छड़ी से भी छूता था. उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे. यहां मार पड़ी. आहत सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा !
नांद की तरफ आंखें तक न उठाईं.
दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पांव न उठाने की कसम खा ली थी. वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पांव न उठाया. एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डंडे जमाये तो मोती को गुस्सा काबू से बाहर हो गया. हल लेकर भागा. हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाटकर बराबर हो गया. गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होतीं तो दोनों पकड़ाई में न आते.
हीरा ने मूक-भाषा में कहा-भागना व्यर्थ है.'
मोती ने उत्तर दिया-'तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी.'
'अबकी बड़ी मार पड़ेगी.'
'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहां तक बचेंगे ?'
'गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा है, दोनों के हाथों में लाठियां हैं.'
मोती बोला-'कहो तो दिखा दूं मजा मैं भी, लाठी लेकर आ रहा है.'
हीरा ने समझाया-'नहीं भाई ! खड़े हो जाओ.'
'मुझे मारेगा तो मैं एक-दो को गिरा दूंगा.'
'नहीं हमारी जाति का यह धर्म नहीं है.'
मोती दिल में ऐंठकर रह गया. गया आ पहुंचा और दोनों को पकड़ कर ले चला. कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती पलट पड़ता. उसके तेवर देख गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही भलमनसाहत है.
आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया, दोनों चुपचाप खड़े रहे.
घर में लोग भोजन करने लगे. उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियां लिए निकली और दोनों के मुंह में देकर चली गई. उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शान्त होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया. यहां भी किसी सज्जन का वास है. लड़की भैरो की थी. उसकी मां मर चुकी थी. सौतेली मां उसे मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी.
दोनों दिन-भर जाते, डंडे खाते, अड़ते, शाम को थान पर बांध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियां खिला जाती. प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की आंखों में रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था.
एक दिन मोती ने मूक-भाषा में कहा-'अब तो नहीं सहा जाता हीरा !
'क्या करना चाहते हो ?'
'एकाध को सींगों पर उठाकर फेंक दूंगा.'
'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमें रोटियां खिलाती है, उसी की लड़की है, जो इस घर का मालिक है, यह बेचारी अनाथ हो जाएगी.'
'तो मालकिन को फेंक दूं, वही तो इस लड़की को मारती है.
'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूल जाते हो.'
'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते, बताओ, तुड़ाकर भाग चलें.'
'हां, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे.'
इसका एक उपाय है, पहले रस्सी को थोड़ा चबा लो. फिर एक झटके में जाती है.'
रात को जब बालिका रोटियां खिला कर चली गई तो दोनों रस्सियां चबने लगे, पर मोटी रस्सी मुंह में न आती थी. बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे.
साहसा घर का द्वार खुला और वह लड़की निकली. दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे. दोनों की पूंछें खड़ी हो गईं. उसने उनके माथे सहलाए और बोली-'खोल देती हूँ, चुपके से भाग जाओ, नहीं तो ये लोग मार डालेंगे. आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएं.'
उसने गरांव खोल दिया, पर दोनों चुप खड़े रहे.
मोती ने अपनी भाषा में पूंछा-'अब चलते क्यों नहीं ?'
हीरा ने कहा-'चलें तो, लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आएगी, सब इसी पर संदेह करेंगे.
साहसा बालिका चिल्लाई-'दोनों फूफा वाले बैल भागे जे रहे हैं, ओ दादा! दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, ओ दादा! दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौड़ो.
गया हड़बड़ाकर भीतर से निकला और बैलों को पकड़ने चला. वे दोनों भागे. गया ने पीछा किया, और भी तेज हुए, गया ने शोर मचाया. फिर गांव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा. दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया. सीधे दौड़ते चले गए. यहां तक कि मार्ग का ज्ञान रहा. जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहां पता न था. नए-नए गांव मिलने लगे. तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए.
हीरा ने कहा-'मुझे मालूम होता है, राह भूल गए.'
'तुम भी बेतहाशा भागे, वहीं उसे मार गिराना था.'
'उसे मार गिराते तो दुनिया क्या कहती ? वह अपने धर्म छोड़ दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडें ?'
दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे. खेत में मटर खड़ी थी. चरने लगे. रह-रहकर आहट लेते रहे थे. कोई आता तो नहीं है.
जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे. पहले दोनों ने डकार ली. फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेकने लगे. मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहां तक कि वह खाई में गिर गया. तब उसे भी क्रोध आ गया. संभलकर उठा और मोती से भिड़ गया. मोती ने देखा कि खेल में झगड़ा हुआ चाहता है तो किनारे हट गया.
अरे ! यह क्या ? कोई सांड़ डौंकता चला आ रहा है. हां, सांड़ ही है. वह सामने आ पहुंचा. दोनों मित्र बगलें झांक रहे थे. सांड़ पूरा हाथी था. उससे भिड़ना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिड़ने पर भी जान बचती नजर नहीं आती. इन्हीं की तरफ आ भी रहा है. कितनी भयंकर सूरत है !
मोती ने मूक-भाषा में कहा-'बुरे फंसे, जान बचेगी ? कोई उपाय सोचो.'
हीरा ने चिंतित स्वर में कहा-'अपने घमंड में फूला हुआ है, आरजू-विनती न सुनेगा.'
'भाग क्यों न चलें?'
'भागना कायरता है.'
'तो फिर यहीं मरो. बंदा तो नौ दो ग्यारह होता है.'
'और जो दौड़ाए?'
' तो फिर कोई उपाए सोचो जल्द!'
'उपाय यह है कि उस पर दोनों जने एक साथ चोट करें. मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा. मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना. जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है.
दोनों मित्र जान हथेली पर लेकर लपके. सांड़ को भी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजुरबा न था.
वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था. ज्यों-ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौड़ाया. सांड़ उसकी तरफ मुड़ा तो हीरा ने रगेदा. सांड़ चाहता था, कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे. उसे वह अवसर न देते थे. एक बार सांड़ झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर उसके पेट में सींग भोंक दिया. सांड़ क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींगे चुभा दिया.
आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया. यहां तक कि सांड़ बेदम होकर गिर पड़ा. तब दोनों ने उसे छोड़ दिया. दोनों मित्र जीत के नशे में झूमते चले जाते थे.
मोती ने सांकेतिक भाषा में कहा-'मेरा जी चाहता था कि बचा को मार ही डालूं.'
हीरा ने तिरस्कार किया-'गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए.'
'यह सब ढोंग है, बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे.'
'अब घर कैसे पहुंचोगे वह सोचो.'
'पहले कुछ खा लें, तो सोचें.'
सामने मटर का खेत था ही, मोती उसमें घुस गया. हीरा मना करता रहा, पर उसने एक न सुनी. अभी दो ही चार ग्रास खाये थे कि आदमी लाठियां लिए दौड़ पड़े और दोनों मित्र को घेर लिया, हीरा तो मेड़ पर था निकल गया. मोती सींचे हुए खेत में था. उसके खुर कीचड़ में धंसने लगे. न भाग सका. पकड़ लिया. हीरा ने देखा, संगी संकट में है तो लौट पड़ा. फंसेंगे तो दोनों फंसेंगे. रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया.
प्रातःकाल दोनों मित्र कांजी हौस में बंद कर दिए गए.
दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पड़ा था कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला. समझ में न आता था, यह कैसा स्वामी है. इससे तो गया फिर भी अच्छा था. यहां कई भैंसे थीं, कई बकरियां, कई घोड़े, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुर्दों की तरह पड़े थे.
कई तो इतने कमजोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे. सारा दिन मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए रहते, पर कोई चारा न लेकर आता दिखाई दिया. तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती.
रात को भी जब कुछ भोजन न मिला तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी. मोती से बोला-'अब नहीं रहा जाता मोती !
मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया-'मुझे तो मालूम होता है कि प्राण निकल रहे हैं.'
'आओ दीवार तोड़ डालें.'
'मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा.'
'बस इसी बूत पर अकड़ते थे !'
'सारी अकड़ निकल गई.'
बाड़े की दीवार कच्ची थी. हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिए और जोर मारा तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया. फिर तो उसका साहस बढ़ा उसने दौड़-दौड़कर दीवार पर चोटें कीं और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा.
उसी समय कांजी हौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला. हीरा का उद्दंड्डपन्न देखकर उसे कई डंडे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बांध दिया.
मोती ने पड़े-पड़े कहा-'आखिर मार खाई, क्या मिला?'
'अपने बूते-भर जोर तो मार दिया.'
'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गए.'
'जोर तो मारता ही जाऊंगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जाएं.'
'जान से हाथ धोना पड़ेगा.'
'कुछ परवाह नहीं. यों भी तो मरना ही है. सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जाने बच जातीं. इतने भाई यहां बंद हैं. किसी की देह में जान नहीं है. दो-चार दिन यही हाल रहा तो मर जाएंगे.'
'हां, यह बात तो है. अच्छा, तो ला फिर मैं भी जोर लगाता हूँ.'
मोती ने भी दीवार में सींग मारा, थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और फिर हिम्मत बढ़ी, फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वंदी से लड़ रहा है. आखिर कोई दो घंटे की जोर-आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई, उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा तो आधी दीवार गिर पड़ी.
दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे, तीनों घोड़ियां सरपट भाग निकलीं. फिर बकरियां निकलीं, इसके बाद भैंस भी खसक गई, पर गधे अभी तक ज्यों के त्यों खड़े थे.
हीरा ने पूछा-'तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?'
एक गधे ने कहा-'जो कहीं फिर पकड़ लिए जाएं.'
'तो क्या हरज है, अभी तो भागने का अवसर है.'
'हमें तो डर लगता है. हम यहीं पड़े रहेंगे.'
आधी रात से ऊपर जा चुकी थी. दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे कि भागें, या न भागें, और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था. जब वह हार गया तो हीरा ने कहा-'तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो, शायद कहीं भेंट हो जाए.'
मोती ने आंखों में आंसू लाकर कहा-'तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं. आज तुम विपत्ति में पड़ गए हो तो मैं तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊं ?'
हीरा ने कहा-'बहुत मार पड़ेगी, लोग समझ जाएंगे, यह तुम्हारी शरारत है.'
मोती ने गर्व से बोला-'जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधना पड़ा, उसके लिए अगर मुझे मार पड़े, तो क्या चिंता. इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई, वे सब तो आशीर्वाद देंगे.'
यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सींगों से मार-मार कर बाड़े से बाहर निकाला और तब अपने बंधु के पास आकर सो रहा.
भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की जरूरत नहीं. बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बांध दिया गया.
एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहां बंधे पड़े रहे. किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला. हां, एक बार पानी दिखा दिया जाता था. यही उनका आधार था. दोनों इतने दुर्बल हो गए थे कि उठा तक नहीं जाता था, ठठरियां निकल आईं थीं. एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहां पचास-साठ आदमी जमा हो गए. तब दोनों मित्र निकाले गए और लोग आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते.
ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीददार होता ? सहसा एक दढ़ियल आदमी, जिसकी आंखें लाल थीं और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्र के कूल्हों में उंगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा. चेहरा देखकर अंतर्ज्ञान से दोनों मित्रों का दिल कांप उठे. वह क्यों है और क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ. दोनों ने एक-दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया.
हीरा ने कहा-'गया के घर से नाहक भागे, अब तो जान न बचेगी.' मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया-'कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं, उन्हें हमारे ऊपर दया क्यों नहीं आती ?'
'भगवान के लिए हमारा जीना मरना दोनों बराबर है. चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे. एक बार उस भगवान ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था. क्या अब न बचाएंगे ?'
'यह आदमी छुरी चलाएगा, देख लेना.'
'तो क्या चिंता है ? मांस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी के काम आ जाएगा.'
नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढ़ियल के साथ चले. दोनों की बोटी-बोटी कांप रही थी. बेचारे पांव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-प़डते भागे जाते थे, क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर डंडा जमा देता था.
राह में गाय-बैलों का एक रेवड़ हरे-भरे हार में चरता नजर आया. सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल. कोई उछलता था, कोई आनंद से बैठा पागुर करता था कितना सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब. किसी को चिंता नहीं कि उनके दो बाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं.
सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि परिचित राह है. हां, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था. वही खेत, वही बाग, वही गांव मिलने लगे, प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी. सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गई. आह ! यह लो ! अपना ही हार आ गया. इसी कुएं पर हम पुर चलाने आया करते थे, यही कुआं है.
मोती ने कहा-'हमारा घर नजदीक आ गया है.'
हीरा बोला -'भगवान की दया है.'
'मैं तो अब घर भागता हूँ.'
'यह जाने देगा ?'
इसे मैं मार गिराता हूँ.
'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो. वहां से आगे हम न जाएंगे.'
दोनों उन्मत्त होकर बछड़ों की भांति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े. वह हमारा थान है. दोनों दौड़कर अपने थान पर आए और खड़े हो गए. दढ़ियल भी पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था.
झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था. बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा. मित्रों की आंखों से आनन्द के आंसू बहने लगे. एक झूरी का हाथ चाट रहा था.
दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सियां पकड़ लीं. झूरी ने कहा-'मेरे बैल हैं.'
'तुम्हारे बैल कैसे हैं ? मैं मवेसीखाने से नीलाम लिए आता हूँ.'
''मैं तो समझता हूँ, चुराए लिए जाते हो! चुपके से चले जाओ, मेरे बैल हैं. मैं बेचूंगा तो बिकेंगे. किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार हैं ?'
'जाकर थाने में रपट कर दूँगा.'
'मेरे बैल हैं. इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं.
दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा. उसी वक्त मोती ने सींग चलाया. दढ़ियल पीछे हटा. मोती ने पीछा किया. दढ़ियल भागा. मोती पीछे दौड़ा, गांव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, पर खड़ा दढ़ियल का रास्ता वह देख रहा था, दढ़ियल दूर खड़ा धमकियां दे रहा था, गालियां निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था, और मोती विजयी शूर की भांति उसका रास्ता रोके खड़ा था. गांव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे. जब दढ़ियल हारकर चला गया तो मोती अकड़ता हुआ लौटा. हीरा ने कहा-'मैं तो डर गया था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो.'
'अब न आएगा.'
'आएगा तो दूर से ही खबर लूंगा. देखूं, कैसे ले जाता है.'
'जो गोली मरवा दे ?'
'मर जाऊंगा, पर उसके काम न आऊंगा.'
'हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता.'
'इसलिए कि हम इतने सीधे हैं.'
जरा देर में नाँदों में खली भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे. झूरी खड़ा दोनों को सहला रहा था. वह उनसे लिपट गया.
झूरी की पत्नी भी भीतर से दौड़ी-दौड़ी आई. उसने ने आकर दोनों बैलों के माथे चूम लिए

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tooo long summary 
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                                                             'गोदान'
उपन्यास वे ही उच्च कोटि के समझे जाते हैं जिनमें आदर्श तथा यथार्थ का पूर्ण सामंजस्य हो। 'गोदान' में समान्तर रूप से चलने वाली दोनो कथाएं हैं - एक ग्राम्य कथा और दूसरी नागरिक कथा, लेकिन इन दोनो कथाओं में परस्पर सम्बद्धता तथा सन्तुलन पाया जाता है। ये दोनो कथाएं इस उपन्यास की दुर्बलता नहीं वरन, सशक्त विशेषता है। 

यदि हमें तत्कालीन समय के भारत वर्ष को समझना है तो हमें निश्चित रूप से गोदान को पढना चाहिए इसमें देश,काल की परिस्थितियों का सटीक वर्णन किया गया है | कथा नायक होरी की वेदना पाठको के मन में गहरी संवेदना भर देती है| संयुक्त परिवार के विघटन की पीड़ा होरी को तोड़ देती है परन्तु गोदान की इच्छा उसे जीवित रखती है और वह यह इच्छा मन में लिए ही वह इस दुनिया से कूच कर जाता है| 

गोदान औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत किसान का महाजनी व्यवस्था में चलने वाले निरंतर शोषण तथा उससे उत्पन्न संत्रास की कथा है। गोदान का नायक होरी एक किसान है जो किसान वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद है। 'आजीवन दुर्धर्ष संघर्ष के वावजूद उसकी एक गाय की आकांक्षा पूर्ण नहीं हो पाती'। गोदान भारतीय कृषक जीवन के संत्रासमय संघर्ष की कहानी है। 

'गोदान' होरी की कहानी है, उस होरी की जो जीवन भर मेहनत करता है, अनेक कष्ट सहता है, केवल इसलिए कि उसकी मर्यादा की रक्षा हो सके और इसीलिए वह दूसरों को प्रसन्न रखने का प्रयास भी करता है, किंतु उसे इसका फल नहीं मिलता और अंत में मजबूर होना पड़ता है, फिर भी अपनी मर्यादा नहीं बचा पाता। परिणामतः वह जप-तप के अपने जीवन को ही होम कर देता है। यह होरी की कहानी नहीं, उस काल के हर भारतीय किसान की आत्मकथा है। और इसके साथ जुड़ी है शहर की प्रासंगिक कहानी। 'गोदान' में उन्होंने ग्राम और शहर की दो कथाओं का इतना यथार्थ रूप और संतुलित मिश्रण प्रस्तुत किया है। दोनों की कथाओं का संगठन इतनी कुशलता से हुआ है कि उसमें प्रवाह आद्योपांत बना रहता है। प्रेमचंद की कलम की यही विशेषता है।
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                       ठाकुर का कुआँ
 

जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आयी । गंगी से बोला- यह कैसा पानी है ? मारे बास के पिया नहीं जाता । गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाये देती है !

गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी । जरुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से?

ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा ? दूर से लोग डाँट बतायेंगे । साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा ? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।

जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला- अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता । ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ ।

गंगी ने पानी न दिया । खराब पानी से बीमारी बढ़ जायगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं । बोली- यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाये देती हूँ।

जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा- पानी कहाँ से लायेगी ?

ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?

‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से । ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे । गरीबों का दर्द कौन समझता है ! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?’

इन शब्दों में कड़वा सत्य था । गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।

 

 

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रात के नौ बजे थे । थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफिक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं । कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ निकल गये।कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नकल ले आये । नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती । कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे- कौड़ी नकल उड़ा दी । काम करने ढंग चाहिए ।

इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची ।

कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी । गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतजार करने लगी । इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है । किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते ।

गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा- हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहाँ तो जितने है, एक- से-एक छँटे हैं । चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें । अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है । काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है । किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे । कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!

कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई । गंगी की छाती धक-धक करने लगी । कहीं देख लें तो गजब हो जाय । एक लात भी तो नीचे न पड़े । उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई । कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी । इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं ?

कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी । इनमें बात हो रही थी ।

‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’

‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है ।’

‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।’

‘लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ? दस-पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!’

‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता ! यहाँ काम करते- करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता ।’

दोनों पानी भरकर चली गयीं, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आयी। बेफिक्रे चले गऐ थे । ठाकुर भी दरवाजा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो । गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।

उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला । दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो । अगर इस समय वह पकड़ ली गयी, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं । अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया ।

घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता । जरा भी आवाज न हुई । गंगी ने दो- चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे ।घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा । कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।

गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया । शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।

गंगी के हाथ से रस्सी छूट गयी । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं ।

ठाकुर कौन है, कौन है ? पुकारते हुए कुएँ की तरफ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी ।

घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाये वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।

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वरदान

मुँशी प्रेमचँद की कहानी

विन्घ्याचल पर्वत मध्यरात्रि के निविड़ अन्धकार में काल देव की भांति खड़ा था। उस पर उगे हुए छोटे-छोटे वृक्ष इस प्रकार दष्टिगोचर होते थे, मानो ये उसकी जटाएं है और अष्टभुजा देवी का मन्दिर जिसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों में लहरा रही थीं, उस देव का मस्तक है मंदिर में एक झिलमिलाता हुआ दीपक था, जिसे देखकर किसी धुंधले तारे का मान हो जाता था।

अर्धरात्रि व्यतीत हो चुकी थी। चारों और भयावह सन्नाटा छाया हुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पर्वत के नीचे सुखद प्रवाह से बह रही थीं। उनके बहाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनि निकल रही थी। ठौर-ठौर नावों पर और किनारों के आस-पास मल्लाहों के चूल्हों की आंच दिखायी देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रधारिणी स्त्री अष्टभुजा देवी के सम्मुख हाथ बांधे बैठी हुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट होती थी। उसने देर तक सिर झुकाये रहने के पश्चात कहा।

‘माता! आज बीस वर्ष से कोई मंगलवार ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणो पर सिर न झुकाया हो। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जबकि मैंने तुम्हारे चरणों का ध्यान न किया हो। तुम जगतारिणी महारानी हो। तुम्हारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की अभिलाषा पूरी न हुई। मैं तुम्हें छोड़कर कहां जाऊ?’

‘माता! मैंने सैकड़ों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीर्थयाञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न हुआ। तब तुम्हारी शरण आयी। अब तुम्हें छोड़कर कहां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की है। क्या मैं तुम्हारे दरबार से निराश हो जाऊं?’

सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही। अकस्मात उसके चित्त पर अचेत करने वाले अनुराग का आक्रमण हुआ। उसकी आंखें बन्द हो गयीं और कान में ध्वनि आयी।

‘सुवामा! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। मांग, क्या मांगती है?

सुवामा रोमांचित हो गयी। उसका हृदय धड़कने लगा। आज बीस वर्ष के पश्चात महारानी ने उसे दर्शन दिये। वह कांपती हुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, वह महारानी देंगी’ ?

‘हां, मिलेगा।’

‘मैंने बड़ी तपस्या की है अतएव बड़ा भारी वरदान मांगूगी।’

‘क्या लेगी कुबेर का धन’?

‘नहीं।’

‘इन्द का बल।’

‘नहीं।’

‘सरस्वती की विद्या?’

‘नहीं।’

‘फिर क्या लेगी?’

‘संसार का सबसे उत्तम पदार्थ।’

‘वह क्या है?’

‘सपूत बेटा।’

‘जो कुल का नाम रोशन करे?’

‘नहीं।’

‘जो माता-पिता की सेवा करे?’

‘नहीं।’

‘जो विद्वान और बलवान हो?’

‘नहीं।’

‘फिर सपूत बेटा किसे कहते हैं?’

‘जो अपने देश का उपकार करे।’

‘तेरी बुद्वि को धन्य है। जा, तेरी इच्छा पूरी होगी।’

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