surdas ke sabhi pado ka arth

नमस्कार मित्र!
 1. वह उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव तुम तो बड़े भाग्यशाली हो जो श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उनके प्रेम से अछूते हो। अर्थात्‌ श्री कृष्ण इतने प्यारे हैं कि जो व्यक्ति क्षणभर के लिए भी उनके साथ रह जाए वह उनसे प्रेम किए बगैर नहीं रह सकता। तुम तो हमेशा उनके साथ रहते हो फिर भी तुम्हें उनसे प्रेम नहीं हुआ। तुम सच में बड़े भाग्यशाली व्यक्ति हो। वे कहती है कि तुम्हारी स्थिति वैसे ही जैसे जल के भीतर रहते हुए भी कमल के पत्ते पर पानी की एक बूंद नहीं ठहर पाती है। वह आगे कहते हैं कि तेल से भरी गगरी पानी में रहते हुए भी उसके प्रभाव से आधूती रही है। तुम्हारी हालत भी बिलकुल वैसी ही है। तुम पर उनके प्रेम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। वह कहती है तुम्हारी श्री कृष्ण के रूप पर कभी दृष्टि नहीं पड़ी है तो तुम कैसे उनके प्रेम रूपी नदी में अपने पैर रखोगे। हम तो भोली व अबला गोपियाँ हैं जो उनके प्रेम में डूबी हुई हैं। हमारी तो उसी प्रकार की स्थिति है जैसे चींटियाँ गुड़ से चिपकी रहती है और कहीं नहीं जाती हैं। भाव यह है कि हम श्री कृष्ण के प्रेम में इतना रम गई हैं कि उनके सिवाए हमें कुछ और दिखाई नहीं देता। हम तो कृष्णमय हो गई हैं।
 
2. इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं, हे उद्धव! जबसे श्री कृष्ण गोकुल छोड़कर मथुरा गए हैं, वह विरह हमारे मन में ही रह गई है। उस पीड़ा को न कोई सुनने वाला है और न ही किसी से कहते बनता है। इसलिए हमने इस वेदना को हृदय में ही रख लिया है क्योंकि हम कृष्ण से शिकायत कर अपने प्रेम की मर्यादा का अपमान नहीं कर सकते हैं। जब श्री कृष्ण मथुरा गए थे तो जाते समय हमें शीघ्र आने का वचन देकर गए थे परन्तु वहाँ पहुँचकर न वे वापस आए और न ही अपने आने का सन्देश ही दिया। उन्होंने अपना या हमारा कुशल-क्षेम न तो भेजा और न ही पूछा। हम उनके वियोग रूपी अग्नि में तिल-तिल करके जल रहे हैं। वह कहती हैं उद्धव तुम्हारे योग के संदेश ने हमारी वियोग रूपी आग को और अधिक बढ़ा दिया है। अर्थात्‌ तुम्हारा योग सन्देश आग में घी के समान काम कर रहा है। वह कहती हैं कि हम ऐसे व्यक्ति से गुहार लगाना चाहते हैं जो हमें श्री कृष्ण के विषय में जानकारी दे व उनका कुशल-क्षेत्र का समाचार हमें सुनाए तथा हमारा संदेश श्री कृष्ण के पास ले जाए। उनके धैर्य को धारण करने की शक्ति अब समाप्त हो चुकी है, इसका कारण है कि गोपियाँ कृष्ण के विरह में बुरी तरह जल रही हैं। 
 
3. उद्धव द्वारा समझाए जाने पर गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव श्री कृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी लकड़ी के आश्रय को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार हम कृष्ण का आश्रय कभी नहीं छोड़ सकते हैं। भाव यह कि हारिल पक्षी अपने पंजों पर एक लकड़ी दबाए रहता है और वह यही सोचता है कि मैं पेड़ की शाखा पर बैठा हूँ। उसी तरह गोपियाँ श्री कृष्ण के प्रेम का आश्रय लिए रहती हैं। वह कहती हैं कि हमने अपने हृदय में मन, वचन व कर्म से श्री कृष्ण को अपना मान लिया है। हमने श्री कृष्ण नामक लकड़ी को दृढ़ता से पकड़ लिया है। अब तो यह हाल है कि हम सोते-जागते, स्वप्नावस्था तथा रात-दिन श्री कृष्ण श्री कृष्ण का ही स्मरण करते रहते हैं। वह कहती हैं कि उद्धव तम्हारे द्वारा दिया गया योग का उपदेश हमें ऐसे प्रतीत होता है मानों वह कड़वी ककड़ी के सामान है जिसे निगला नहीं जा सकता। गोपियाँ कहती हैं कि तुम हमारे लिए यह कौन सी बीमारी ले आए हो जिसे हमने न कभी देखा और न कभी सुना है। गोपियाँ उद्धव को कहती हैं कि इस योग के ज्ञान की आवश्यकता तो उन्हें हैं जिनके मन चकरी के समान घूमते रहते हैं। भाव यह है कि हमने अपने हृदय से श्री कृष्ण को अपना मान लिया है। अब हमारा मन एकचित होकर कृष्ण की भक्ति करता है। जिन लोगों का मन एक स्थान पर न लगकर यहाँ वहाँ घूमता रहता है, उन लोगों को योग की आवश्यकता होती है।
 
4. गोपियाँ उद्धव से शिकायत कर कह रही हैं कि मथुरा जाकर श्री कृष्ण ने राजनीति में दक्षता हासिल कर ली है। इसलिए उन्होंने योग का सन्देश तुम्हारे माध्यम से भेजा है। कृष्ण इतने चतुर हैं कि उन्होंने हमें योग-साधना का अध्ययन करने को कहा है अर्थात्‌ पहले तो अपने प्रेम-जाल में हमें फँसा लिया, अब हमें योग के मार्ग पर चलने को कह रहे हैं। यह कृष्ण की वृद्धि व विवेक ही है जो उन्होंने हम अबलाओं को योग साधना के कठिन मार्ग पर चलने का संदेश भेजा है। वे कहती हैं कि हे उद्धव श्री कृष्ण अच्छे नहीं हैं, क्योंकि जो अच्छे लोग होते हैं वह दूसरों की भलाई के लिए इधर-उधर भागते रहते हैं। वह कहती हैं कि हम कृष्ण से अपना मन वापस माँग रहे हैं जो उन्होंने चुरा लिया है। कृष्ण दूसरों को तो अनीति करने से रोकते हैं परन्तु स्वयं वह हमारे साथ अनीतिपूर्ण व्यवहार (अन्यायपूर्ण व्यवहार) कर रहे हैं। वह कहती हैं कि राजा का धर्म होता है कि वह प्रजा की रक्षा करे। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ सच्चा राजधर्म वह मानती हैं जिसमें राजा प्रजा को न सताए।
 
ढेरों शुभकामनाएँ!

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