tatkalin samaj mein vyapt sprishya aur asprishya bhavana mein aaj aaye parivartano per ek charcha likhiye.......

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अस्पृश्ता एक अभिशाप है। यह अभिशाप बहुत समय पहले भारतीय संस्कृति को दीमक की तरह चाट रहा था। इस अभिशाप का शिकार छोटी जाति के लोगों को होना पड़ता था। उनका स्पर्श मात्र ही लोगों को अपवित्र बना देता था। उन्हें अछूत माना जाता था और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उस समय का भारत दो वर्गों में बँटा हुआ था। जहाँ शासन ऊँची जाति वालों का तथा सेवकाई छोटी जाति वाले लोगों को करनी पड़ती थी।

छूआछूत का यह आलम था कि निम्न जाति के लोगों का शोषण किया जाता था। उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा गया था तथा प्रगति के अवसर उनके लिए थे ही नहीं। उनका काम बस सेवकाई करना होता था। इसके बदले उन्हें जो मेहनताना मिलता था, उससे घर का खर्च चलाना तक कठिन होता था। सारी उम्र वह झूठन खाकर जीते और अंत समय में कफन भी प्राप्त नहीं होता था।

हमारे देश के सविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर जी ने भी इस अभिशाप को भोगा है। वह एक निम्मवर्ग में पैदा हुए थे। वे पढ़ना चाहते थे। वहाँ पढ़ाई के स्थान पर उनके साथ भेदभाव किया जाता था। उन्हें ऊँची जाति के बच्चों के साथ बैठने नहीं दिया जाता था। उन्हे तंग किया जाता था। उन्होंने यह समझ लिया था कि शिक्षा प्राप्त करना सरल नहीं होगा। उन्होंने हार नहीं मानी और शिक्षा प्राप्त की। अपने समय के वह पहले अस्पृश्य बालक थे जिसे विश्वविद्यालय में जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। अंबेडकर का जीवन संघर्षों से घिरा हुआ था और यह संघर्ष मात्र अस्पृश्य परिवार में जन्म लेने के कारण पैदा हुए थे। 

आज़ादी के बाद नेताओं द्वारा इस दिशा में बहुत कार्य किए गए और उन्हें बहुत हद तक सफलता भी प्राप्त हुई। परन्तु यह कहना की समाज से इसे हटाया जा सकता है गलत होगा। आज भी भारतीय गाँवों में इस प्रकार का भेदभाव होता है। सरकार इन स्थानों पर स्वयं को लाचार पाती है क्योंकि यहाँ सरपंची कानून चलता है। यहाँ पर सरकारी कानून को मान्यता प्राप्त नहीं है। यहाँ जो सरपंच तय करते हैं, वही कानून बन जाता है। अतः वर्तमान समय में यदि हम कहें कि स्थिति अच्छी है, तो शायद स्वयं को झूठा भुलाव देना होगा।

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