Board Paper of Class 10 2006 Hindi Delhi(SET 1) - Solutions
(ii) चारों खण्डों के प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है।
(iii) यथासंभव प्रत्येक खण्ड के उत्तर क्रमश: दीजिए।
- Question 1
निम्नलिखित गद्यांश के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
तत: किम्। मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्य आज अपने बच्चों को नाखून न काटने के लिए डाँटता है किसी दिन-कुछ थोड़े लाख वर्ष पूर्व-वह अपने बच्चों को नाखून नष्ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि वह अब भी नाखून को जिलाए जा रही है और मनुष्य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। कमबख्त रोज़ बढ़ते हैं, क्योंकि वे अंधे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है! मैं मनुष्य के नाखून की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशवी वृत्ति के जीवंत प्रतीक हैं। मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।
मानव-शरीर का अध्ययन करने वाले प्राणी विज्ञानियों का निश्चित मत है कि मानव-चित्त की भाँति मानव-शरीर में भी बहुत-सी अभ्यासजन्य सहज वृत्तियाँ रह गई हैं। उसे दीर्घकाल तक उनकी आवश्यकता रही है। अतएव शरीर ने अपने भीतर एक ऐसा गुण पैदा कर लिया है कि वे वृत्तियाँ अनायास ही, और शरीर के अनजान में भी, अपने-आप काम करती हैं। नाखून का बढ़ना उसमें से एक है, केश का बढ़ना दूसरा है, दाँत का दुबारा उठना तीसरा है, पलकों का गिरना चौथा है और असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान की स्मृतियों को ही कहते हैं। हमारी भाषा में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और वाक् की अनायास ही घटने वाली वृत्तियों के विषय में विचार करे, तो उसे अपनी वास्तविक प्रवृत्ति पहचानने में बहुत सहायता मिले। पर कौन सोचता है? सोचना तो क्या, उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसके मनुष्यता की निशानी है और यद्यपि पशुत्व के चिह्न उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है। पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई और रास्ता खोजना चाहिए। अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधनी है।
मेरा मन पूछता है–किस ओर? मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है? पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर? अस्त्र बढ़ाने की ओर या अस्त्र काटने की ओर? मेरी निर्बोध बालिका ने मानी मनुष्य-जाति से ही प्रश्न किया है–जानते हो, नाखून क्यों बढ़ते हैं? यह हमारी पशुता के अवशेष हैं। मैं भी पूछता हूँ–जानते हो, ये अस्त्र-शस्त्र क्यों बढ़ रहे हैं? ये हमारी पशुता की निशानी हैं। भारतीय भाषाओं में प्राय: ही अंग्रेज़ी के 'इंडिपेंडेंस' का अर्थ है अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव, पर 'स्वाधीनता' शब्द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना। अंग्रेज़ी में कहना हो, तो 'सेल्फ़डिपेंडेस' कह सकते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि इतने दिनों तक अंग्रेज़ी की अनुवर्तिता करने के बाद भी भारतवर्ष 'इंडिपेंडेंस' को अनधीनता क्यों नहीं कह सका? उसने अपनी आज़ादी के जितने भी नामकरण किए – स्वतंत्रता, स्वराज, स्वाधीनता – उन सबमें 'स्व' का बंधन अवश्य रखा। यह क्या संयोग की बात है या हमारी समूची परंपरा ही अनजान में, हमारी भाषा के द्वारा प्रकट होती रही है? हमारा इतिहास बहुत पुराना है, हमारे शास्त्रों में इस समस्या को नाना भावों और नाना पहलुओं में विचारा गया है। हम कोई नौसिखुए नहीं हैं, जो रातों-रात अनजान जंगल में पहुँचाकर अरक्षित छोड़ दिए गए हों। हमारी परंपरा महिमामयी, उत्तराधिकार विपुल और संस्कार उज्ज्वल है। हमारे अनजान में भी ये बातें हमें एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देती हैं। यह ज़रुर है कि परिस्थितियाँ बदल गई हैं। उपकरण नए हो गए हैं और उलझनों की मात्रा भी बहुत बढ़ गई है, पर मूल समस्याएँ बहुत अधिक नहीं बदली हैं। भारतीय चित्त जो आज भी 'अनधीनता' के रुप में न सोचकर 'स्वाधीनता' के रुप में सोचता है, वह हमारे दीर्घकालीन संस्कारों का फल है। वह 'स्व' के बंधन को आसानी से नहीं छोड़ सकता। अपने आप पर अपने-आपके द्वारा लगाया हुआ बंधन हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है। मैं ऐसा तो नहीं मानता कि जो कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है, उससे हम चिपटे ही रहें। पुराने का 'मोह' सब समय वाँछनीय ही नहीं होता। मेरे बच्चे को गोद में दबाए रहने वाली 'बंदरिया' मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती।
(i) प्राचीन काल में मनुष्य बच्चों को नाखून नष्ट करने के लिए क्यों डाँटता होगा? (2)
(ii) नाखून मनुष्य की किस वृत्ति के प्रतीक हैं? (2)
(iii) क्या 'स्व' का बंधन हमारी संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता कही जा सकती है? इसका कारण स्पष्ट कीजिए। (2)
(iv) स्पष्ट करें कि पुराने का मोह प्रत्येक समय वाँछनीय नहीं होता। (2)
(v) उपरोक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए। (2)
(vi) उपरोक्त गद्यांश में से कोई दो भाववाचक संज्ञाएँ छाँटकर लिखिए। (2)
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- Question 2
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए –
यह समन्दर की पछाड़
तोड़ती है हाड़ तट का-
अति कठोर पहाड़
पी गया हूं दृश्य वर्षा का:
हर्ष बादल का
हृदय में भरकर हुआ हूँ हवा सा हलका:
धुन रही थीं सर
व्यर्थ व्याकुल मत्त लहरें
वहीं आ-आकर
जहाँ था मैं खड़ा
मौन:
समय के आघात से पोली, खड़ी दीवारें
जिस तरह छहरें
एक के बाद एक, सहसा।
चांदनी की उँगलियाँ चंचल
क्रोशिये-सी बुन रही थी चपल
फेन-झालर बेल, मानो।
पंक्तियों में टूटती-गिरती
चांदनी में लोटती लहरें
बिजलियों-सी कौंधती लहरें
मछलियों-सी बिछल पड़ती तड़पती लहरें
बार-बार
स्वप्न में रौंदी हुई सी विकल-सिकता
पुतलियों-सी मूंद लेती
आँख।
वह समन्दर की पछाड़
तोड़ती है हाड़ का तट का-
अति कठोर पहाड़।
यह समन्दर की पछाड़।(i) सागर तट का हाड़ किसे कहा गया है? (1)
(ii) 'हवा सा हल्का' होने से कवि का क्या आशय है? (1)
(iii) लहरों की उपमा बिजलियों और मछलियों से क्यों दी गई है? (2)
(iv) कवि की अतिशय आनंदानुभूति का कारण स्पष्ट कीजिए। (2)
(v) इस कविता के आधार पर समुद्र की लहरों के सौंदर्य का वर्णन कीजिए। (2)
अथवा
"बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई।
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई।
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाए
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था।
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनाई दे रही थी
तमाशबीनों की शाबाशी और वाह वाह।(i) सीधी सी बात में टेढ़ापन क्यों आ गया? (1)
(ii) बात और भी पेचीदा क्यों हो गई? (2)
(iii) तमाशबीन किस बात पर वाह-वाह कर रहे थे? (2)
(iv) बात और भाषा परस्पर जुड़े होते हैं परन्तु कई बार भाषा के चक्कर में बात की सरलता गायब हो जाती है। इसका कारण स्पष्ट कीजिए। (2)
(v) कवि ने बात कहने के लिए कैसी भाषा का प्रयोग किया है? (1)
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