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निबंध संग्रह

निबंध लेखन- परिचय

निबंध-लेखन कला

गद्य की विधाओं में निबंध-रचना एक मुख्य विधा है। निबंध गद्य-रचना का उत्कृष्ट उदाहरण है। अनुभव तथा ज्ञान का कोई भी क्षेत्र निबंध का विषय बन सकता है। जैसे- गणतंत्र  दिवस, 15 अगस्त, होली, दिपावली, मेरा प्रिय कवि आदि।

निबंध लिखने के लिए लेखक के विषय का अच्छा ज्ञान होना आवश्यक है। विषय के प्रति अपने ज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए निबंध की भाषा का प्रभावशाली होना अत्यंत आवश्यक है। अच्छे निबंध के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

1. निबंध के द्वारा लेखक अपने विचारों को ठीक से प्रस्तुत करता है।

2. इसमें स्पष्टता और सजीवता होनी चाहिए।

3. भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण होती है, साथ ही फैलाव के लिए मुहावरों, लोकोक्तियों व उदाहरणों का प्रयोग किया जाता है।

4. इसमें भूमिका व निष्कर्ष देना ज़रूरी है।

निबंध के अंग

निबंध के मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन अंग होते हैं

1. प्रस्तावना (भूमिका) − प्रस्तावना या भूमिका निबंध के प्रति पाठक के मन में रूचि पैदा करती है। यह अधिक लंबी नहीं होनी चाहिए।

2. विषयवस्तु (विवेचना) − यह निबंध का प्रमुख अंग है। इसमें विषय संबंधी बातों पर चर्चा की जाती है।

3. उपसंहार यह निबंध का अंतिम अंग है। इसमें निबंध में कही गई बातों को सार-रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

निबंध-लेखन कला

गद्य की विधाओं में निबंध-रचना एक मुख्य विधा है। निबंध गद्य-रचना का उत्कृष्ट उदाहरण है। अनुभव तथा ज्ञान का कोई भी क्षेत्र निबंध का विषय बन सकता है। जैसे- गणतंत्र  दिवस, 15 अगस्त, होली, दिपावली, मेरा प्रिय कवि आदि।

निबंध लिखने के लिए लेखक के विषय का अच्छा ज्ञान होना आवश्यक है। विषय के प्रति अपने ज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए निबंध की भाषा का प्रभावशाली होना अत्यंत आवश्यक है। अच्छे निबंध के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है

1. निबंध के द्वारा लेखक अपने विचारों को ठीक से प्रस्तुत करता है।

2. इसमें स्पष्टता और सजीवता होनी चाहिए।

3. भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण होती है, साथ ही फैलाव के लिए मुहावरों, लोकोक्तियों व उदाहरणों का प्रयोग किया जाता है।

4. इसमें भूमिका व निष्कर्ष देना ज़रूरी है।

निबंध के अंग

निबंध के मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन अंग होते हैं

1. प्रस्तावना (भूमिका) − प्रस्तावना या भूमिका निबंध के प्रति पाठक के मन में रूचि पैदा करती है। यह अधिक लंबी नहीं होनी चाहिए।

2. विषयवस्तु (विवेचना) − यह निबंध का प्रमुख अंग है। इसमें विषय संबंधी बातों पर चर्चा की जाती है।

3. उपसंहार यह निबंध का अंतिम अंग है। इसमें निबंध में कही गई बातों को सार-रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

'आतंकवाद' का नाम सुनते ही मन में दहशत जाग उठती है। समय बदल रहा है। लोगों की सोच बदल रही है परन्तु कुछ असामाजिक तत्वों की सोच वहीं की वहीं अटकी हुई है। आज यह विश्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। आतंकवाद किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था और उसकी सुरक्षा पर एक सवालिए निशान की भांति है। पहले इसका स्तर छोटे-छोटे भू-भागों के लिए लड़ने वाले वर्गों तक सीमित था। परन्तु अब यह समस्त विश्व में भंयकर बीमारी की तरह उभर रहा है।

आतंकवाद का भयानक रूप हिंसा है। आज इस आतंकवाद नाम की बीमारी को राजनिति में भी भुनाया जाता है। एक गंदी राजनीति और भयंकर अपराधियों के परस्पर संयोग से आतंकवाद नाम की बीमारी उत्पन्न होती है। यह लोकतंत्र का सम्मान नहीं करता। यह तो गोली के आधार पर शासन करने में विश्वास रखता है। स्वतंत्रता के नाम पर और अपनी नाजायज़ मांगों को रक्त बहाकर मनवाने में विश्वास रखता है। इसके लिए दया, ममता और अहिंसा जैसे शब्द खोखले हैं।

आज आतंकवाद के जरिए सरकार पर दबाव डालकर अपने पक्ष को मज़बूत और दृढ़ रखने का प्रयासकिया जाता है। ऐसे तत्वों को आर्थिक सहायता देने वालो की कमी नहीं है। वे लोग इनके द्वारा अपने स्वार्थों की पूर्ति करते हैं और ऐसे तत्वों को बढ़ावा देते हैं। ये लोग सीधे तौर पर सामने नहीं आते हैं बल्कि पीछे से रहकर इनको मज़बूत बनाते हैं। ये नागिरकों पर आतंक पैदा करके देश को खोखला बनाने का प्रयास करते हैं। इनको रोकने के लिए सरकार को भी जवाबी हिंसा के लिए विवश होना पड़ता है।

लोकतंत्र की नींव के लिए यह सबसे बड़ा खतरा है। आतंकवाद की इस बीमारी से आम जनता को त्रस्त होना पड़ता है। आतंकवादी यह जानते हैं कि सरकार को झुकाना है, तो आम जनता में हिंसा के माध्यम से भय फैलाकर किया जा सकता है। इससे आम जनता को जो मानसिक, शारीरिक और आर्थिक कष्ट सहन करना पड़ता है, उन्हें उनसे कोई सरोकार नहीं है। यह एक मनोवैज्ञानिक खेल है, इसमें कुछ को मारकर हज़ारों में डर पैदा करने का प्रयास किया जाता है। यह कार्य भी करता है। 

आतंकवाद आंतरिक विद्रोह से जन्म लेता है। जब यह देश से बाहर व्यापक स्तर पर फैल जाता है, तो आतंकवाद का रूप धारण कर लेता है। अलकायदा और तालिबान गुट इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। भारत में कई वर्षों से आतंकवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है। कश्मीर घाटी आज तक इस आग में जल रही है। इस आग की लपटें दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों तक भी पहुँच गई हैं। हमारे देश में आतंकवाद लोकतंत्र की एकता और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।

यह आंतकवाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहुँच बना चुका है। भारत, अफ़गानिस्तान, अमेरिका और रूस जैसे देशों में इसका तांडव आए दिन देखने को मिल जाता है। भारत में मुंबई शहर के ताजहोटल में और अमेरिका में वल्ड ट्रेड सेन्टर में हुए आंतकवादी हमले सबसे बड़े हमले थे। इंसानियत को समाप्त कर हिंसा का ऐसा वीभत्स रूप देखते ही लोगों के ह्दय काँप गए।

हमें चाहिए कि इन हमलों से डरने के स्थान पर संयम से काम लें। अपनी देश की एकता और अखण्डता को बनाएँ रखें। सभी धर्म के लोग आपस में मिल-जुलकर रहें। असामजिक तत्वों से सावधान रहें। आतंकवाद देश में उथल-पुथल मचा सकता है लेकिन यदि हम एक होकर इनका सामना करेंगे, तो यह तत्व हमारा और हमारे देश का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। हम यह भुल जाते हैं कि हिंसा करने वाले को हिंसा ही मिलती है। बुरे का अंत बुरा ही होता है। लादेन की दर्दनाक मृत्यु इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

'आतंकवाद' का नाम सुनते ही मन में दहशत जाग उठती है। समय बदल रहा है। लोगों की सोच बदल रही है परन्तु कुछ असामाजिक तत्वों की सोच वहीं की वहीं अटकी हुई है। आज यह विश्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। आतंकवाद किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था और उसकी सुरक्षा पर एक सवालिए निशान की भांति है। पहले इसका स्तर छोटे-छोटे भू-भागों के लिए लड़ने वाले वर्गों तक सीमित था। परन्तु अब यह समस्त विश्व में भंयकर बीमारी की तरह उभर रहा है।

आतंकवाद का भयानक रूप हिंसा है। आज इस आतंकवाद नाम की बीमारी को राजनिति में भी भुनाया जाता है। एक गंदी राजनीति और भयंकर अपराधियों के परस्पर संयोग से आतंकवाद नाम की बीमारी उत्पन्न होती है। यह लोकतंत्र का सम्मान नहीं करता। यह तो गोली के आधार पर शासन करने में विश्वास रखता है। स्वतंत्रता के नाम पर और अपनी नाजायज़ मांगों को रक्त बहाकर मनवाने में विश्वास रखता है। इसके लिए दया, ममता और अहिंसा जैसे शब्द खोखले हैं।

आज आतंकवाद के जरिए सरकार पर दबाव डालकर अपने पक्ष को मज़बूत और दृढ़ रखने का प्रयासकिया जाता है। ऐसे तत्वों को आर्थिक सहायता देने वालो की कमी नहीं है। वे लोग इनके द्वारा अपने स्वार्थों की पूर्ति करते हैं और ऐसे तत्वों को बढ़ावा देते हैं। ये लोग सीधे तौर पर सामने नहीं आते हैं बल्कि पीछे से रहकर इनको मज़बूत बनाते हैं। ये नागिरकों पर आतंक पैदा करके देश को खोखला बनाने का प्रयास करते हैं। इनको रोकने के लिए सरकार को भी जवाबी हिंसा के लिए विवश होना पड़ता है।

लोकतंत्र की नींव के लिए यह सबसे बड़ा खतरा है। आतंकवाद की इस बीमारी से आम जनता को त्रस्त होना पड़ता है। आतंकवादी यह जानते हैं कि सरकार को झुकाना है, तो आम जनता में हिंसा के माध्यम से भय फैलाकर किया जा सकता है। इससे आम जनता को जो मानसिक, शारीरिक और आर्थिक कष्ट सहन करना पड़ता है, उन्हें उनसे कोई सरोकार नहीं है। यह एक मनोवैज्ञानिक खेल है, इसमें कुछ को मारकर हज़ारों में डर पैदा करने का प्रयास किया जाता है। यह कार्य भी करता है। 

आतंकवाद आंतरिक विद्रोह से जन्म लेता है। जब यह देश से बाहर व्यापक स्तर पर फैल जाता है, तो आतंकवाद का रूप धारण कर लेता है। अलकायदा और तालिबान गुट इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। भारत में कई वर्षों से आतंकवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है। कश्मीर घाटी आज तक इस आग में जल रही है। इस आग की लपटें दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों तक भी पहुँच गई हैं। हमारे देश में आतंकवाद लोकतंत्र की एकता और अखंडता के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।

यह आंतकवाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहुँच बना चुका है। भारत, अफ़गानिस्तान, अमेरिका और रूस जैसे देशों में इसका तांडव आए दिन देखने को मिल जाता है। भारत में मुंबई शहर के ताजहोटल में और अमेरिका में वल्ड ट्रेड सेन्टर में हुए आंतकवादी हमले सबसे बड़े हमले थे। इंसानियत को समाप्त कर हिंसा का ऐसा वीभत्स रूप देखते ही लोगों के ह्दय काँप गए।

हमें चाहिए कि इन हमलों से डरने के स्थान पर संयम से काम लें। अपनी देश की एकता और अखण्डता को बनाएँ रखें। सभी धर्म के लोग आपस में मिल-जुलकर रहें। असामजिक तत्वों से सावधान रहें। आतंकवाद देश में उथल-पुथल मचा सकता है लेकिन यदि हम एक होकर इनका सामना करेंगे, तो यह तत्व हमारा और हमारे देश का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। हम यह भुल जाते हैं कि हिंसा करने वाले को हिंसा ही मिलती है। बुरे का अंत बुरा ही होता है। लादेन की दर्दनाक मृत्यु इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

स्वाधीनता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको पाने के लिए यदि मनुष्य को लड़ना भी पड़े, तो सदैव तत्पर रहना चाहिए। पराधीनता वो अभिशाप है, जो मनुष्य के आचार-व्यवहार, उसके परिवेश, समाज, मातृभूमि और देश को गुलाम बना देते हैं। गुलामी फिर चाहे कैसी भी हो, गुलामी ही होती है।

भारत ने बहुत लंबे समय से गुलामी के अभिशाप को सहा है। पहले वो मुगलों के अधीन रहा। उनके द्वारा उसने अनेक अत्याचार सहे परन्तु उसकी नींव नहीं हिली। इसका मुख्य कारण था 'मुगल' पहले आए, तो लूटमार के मकसद से थे परन्तु धीरे-धीरे उन्होंने यहाँ रहना स्वीकार कर इस पर राज किया। यदि मुगलकाल के कुछ शासकों को अनदेखा कर दिया जाए, तो बाकि मुस्लिम शासकों ने यहाँ की धन-संपदा का शोषण नहीं किया। मुगलकाल के समाप्त होते-होते अंग्रेज़ों ने यहाँ अपने पैर पसारने शुरु किए। पहले-पहल उन्होंने इसे व्यापार के लिए चुना परन्तु उनका उद्देश्य बहुत बाद में समझ में आया। व्यापार करते हुए उन्होंने पूरे भारत को अपने हाथों में समेटना शुरु कर दिया। उनका उद्देश्य यहाँ की अतुल धन-संपदा का शोषण कर उसे अपने देश पहुँचाने का था। उन्होंने ऐसा किया भी। भारत का विकास व उन्नति उनका उद्देश्य कभी था ही नहीं।

भारत के लोगों को जब स्थिति समझ में आई, तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी। पूरा भारत गुलामी की बेड़ियों में बंध चुका था। यहाँ के लोग उनके शोषण से पीड़ित होने लगे थे। उन्होंने यहाँ कि धन-संपदा, संस्कृति, धरोहर पर अतुल्य वार किए, जिसकी छाप आज भी देखी जा सकती है। हम भारतीयों को पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ने में आधा दशक लग गया। लोगों ने स्वतंत्रता का मूल्य पहचानना शुरु किया और अंग्रेज़ों द्वारा भयंकर यातनाएँ सही। अनेक देशभक्तों ने काल कोठरियों में अपना जीवन व्यतीत किया। कई वीरों ने तो हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। अंतत: भारत ने इन बेड़ियों से आज़ादी प्राप्त की।

यदि मैं आज़ाद देश का नागरिक न होकर गुलाम देश का नागरिक होता, तो अंग्रेज़ों के अत्याचार व दमन का मुँह तोड़ जवाब देता। उनके दमन को रोकने के लिए हड़तालें करवाता, अंग्रेज़ विरोधी सभाओं में भाग लेता व दूसरों को भी आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने के लिए उत्साहित करता। अंग्रेज़ी सामान का बहिष्कार करता और खादी वस्त्र अपनाता। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद की भाँति अपने प्राणों का बलिदान देते हुए ज़रा भी नहीं हिचकता। सुभाषचन्द्र बोस द्वारा निर्मित आज़ाद हिंद फौज़ में शामिल हो भारत को स्वतंत्रता दिलाने में अहम भूमिका निभाता। गाँधीजी द्वारा चलाए सारे आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाता। असहयोग आंदोलन में उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलता। अंग्रेज़ों के आगे अपने घुटने नहीं टेकता। निस्वार्थ भाव से आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता। अपना तन-मन-धन अपने देश को अर्पण कर मैं भी अपना नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिख देता। मेरे देश के प्रति मेरे जो कर्त्तव्य होते, उन्हें में अपनी सहभागिता द्वारा पूरा करके जाता। यह सब कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता। गुलाम भारत में मेरी यही भूमिका होती।

स्वाधीनता हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसको पाने के लिए यदि मनुष्य को लड़ना भी पड़े, तो सदैव तत्पर रहना चाहिए। पराधीनता वो अभिशाप है, जो मनुष्य के आचार-व्यवहार, उसके परिवेश, समाज, मातृभूमि और देश को गुलाम बना देते हैं। गुलामी फिर चाहे कैसी भी हो, गुलामी ही होती है।

भारत ने बहुत लंबे समय से गुलामी के अभिशाप को सहा है। पहले वो मुगलों के अधीन रहा। उनके द्वारा उसने अनेक अत्याचार सहे परन्तु उसकी नींव नहीं हिली। इसका मुख्य कारण था 'मुगल' पहले आए, तो लूटमार के मकसद से थे परन्तु धीरे-धीरे उन्होंने यहाँ रहना स्वीकार कर इस पर राज किया। यदि मुगलकाल के कुछ शासकों को अनदेखा कर दिया जाए, तो बाकि मुस्लिम शासकों ने यहाँ की धन-संपदा का शोषण नहीं किया। मुगलकाल के समाप्त होते-होते अंग्रेज़ों ने यहाँ अपने पैर पसारने शुरु किए। पहले-पहल उन्होंने इसे व्यापार के लिए चुना परन्तु उनका उद्देश्य बहुत बाद में समझ में आया। व्यापार करते हुए उन्होंने पूरे भारत को अपने हाथों में समेटना शुरु कर दिया। उनका उद्देश्य यहाँ की अतुल धन-संपदा का शोषण कर उसे अपने देश पहुँचाने का था। उन्होंने ऐसा किया भी। भारत का विकास व उन्नति उनका उद्देश्य कभी था ही नहीं।

भारत के लोगों को जब स्थिति समझ में आई, तब तक बात हाथ से निकल चुकी थी। पूरा भारत गुलामी की बेड़ियों में बंध चुका था। यहाँ के लोग उनके शोषण से पीड़ित होने लगे थे। उन्होंने यहाँ कि धन-संपदा, संस्कृति, धरोहर पर अतुल्य वार किए, जिसकी छाप आज भी देखी जा सकती है। हम भारतीयों को पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ने में आधा दशक लग गया। लोगों ने स्वतंत्रता का मूल्य पहचानना शुरु किया और अंग्रेज़ों द्वारा भयंकर यातनाएँ सही। अनेक देशभक्तों ने काल कोठरियों में अपना जीवन व्यतीत किया। कई वीरों ने तो हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। अंतत: भारत ने इन बेड़ियों से आज़ादी प्राप्त की।

यदि मैं आज़ाद देश का नागरिक न होकर गुलाम देश का नागरिक होता, तो अंग्रेज़ों के अत्याचार व दमन का मुँह तोड़ जवाब देता। उनके दमन को रोकने के लिए हड़तालें करवाता, अंग्रेज़ विरोधी सभाओं में भाग लेता व दूसरों को भी आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने के लिए उत्साहित करता। अंग्रेज़ी सामान का बहिष्कार करता और खादी वस्त्र अपनाता। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद की भाँति अपने प्राणों का बलिदान देते हुए ज़रा भी नहीं हिचकता। सुभाषचन्द्र बोस द्वारा निर्मित आज़ाद हिंद फौज़ में शामिल हो भारत को स्वतंत्रता दिलाने में अहम भूमिका निभाता। गाँधीजी द्वारा चलाए सारे आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाता। असहयोग आंदोलन में उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलता। अंग्रेज़ों के आगे अपने घुटने नहीं टेकता। निस्वार्थ भाव से आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता। अपना तन-मन-धन अपने देश को अर्पण कर मैं भी अपना नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिख देता। मेरे देश के प्रति मेरे जो कर्त्तव्य होते, उन्हें में अपनी सहभागिता द्वारा पूरा करके जाता। यह सब कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता। गुलाम भारत में मेरी यही भूमिका होती।

चिट्ठियों के माध्यम से हम मन के भावों को एक पन्ने में उतारकर उस पन्ने को एक लिफाफे में डाल देते हैं और डाक-टिकट लगाकर निश्चित पते पर भेज देते हैं। ये बिना बोले अपना कार्य पूरी ईमानदारी से निभातीं हैं। ये हज़ारों वर्षों से हमारे अपनों की जानकारियाँ लाती रहीं हैं। ये स्वयं में एक अनूठा संसार है। 

हमारे जीवन में चिट्ठियाँ विशेष महत्व रखती हैं। हज़ारों मील की दूरियाँ चिट्ठियों के माध्यम से सिमट कर रह जाती हैं। इसका स्वरूप समय के अनुसार बदलता रहा है। पहले के समय में संदेशवाहक; जैसे- घुड़सवार या हरकारों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश भेजा जाता था। परन्तु उस समय यह बहुत कठिन कार्य था। अपने रिश्तेदारों की कुशलक्षेम महीनों बाद प्राप्त होती थीं। मनुष्य ने कबूतरों द्वारा पत्र-व्यवहार का प्रयास भी किया था। कबूतर के पैरों में छोटे-छोटे संदेश बांध दिए जाते थे। इनका प्रयोग राजाओं द्वारा युद्ध में या राजाओं के गुप्तचर विशेष परिस्थितियों में ही करते थे। यातायात के साधनों में हुए बदलावों ने इस दिशा में नई क्रांति को जन्म दिया। 

उसके बाद तो जैसे दुनिया ही बदल गई। चिट्ठियाँ वाहनों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान में भेजी जाने लगीं। ये स्थान डाकघर कहलाते हैं। चिट्ठियाँ बांटने वाले को डाकिया कहते हैं। डाकियों का कार्य होता है, इन डाकघरों से चिट्ठियाँ लेकर उनके सही गंतव्य स्थान पर पहुँचाना। यह कार्य बहुत कठिन होता है। कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ पर सुगमता से नहीं पहुँचा जा सकता है। ऐसे में उन चिट्ठियों को सही स्थान पर पहुँचना हिम्मत का कार्य है। अंतरदेशीय पत्र और पोस्टकार्ड के माध्यम से संदेश सरलतापूर्वक अपनों को मिलने लगे। अब इससे भी आधुनिक साधन; जैसे- स्पीड पोस्ट, कुरियर आदि के द्वारा संदेश शीघ्रता से भेजे जाने लगे हैं। विज्ञान के आविष्कारों ने इसको और भी सरल और सुगम बना दिया है। 

विज्ञान ने कंप्यूटर और इंटरनेट का आविष्कार कर दुनिया को मानो छोटा कर दिया है। अब आप हज़ारों मील दूर रहने वाले अपने सगे-संबंधियों से घर बैठे ही बातचीत कर सकते हैं या संदेश लिखकर दे सकते हैं। बस आपके पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा होनी चाहिए। इसके द्वारा आपको लगेगा ही नहीं कि आपके अपने आपके पास नहीं हैं। आज चिट्ठियों का स्वरूप पन्नों से निकलकर ई-मेल और एस.एम.एस. का रूप धारण कर चुका है। 

युग बदल जाएँ, इनका स्वरूप बदल जाए परन्तु चिट्ठियों की दुनिया हमेशा से निराली और प्यारी रही हैं। चिट्ठियों का चाहे रूप बदलता रहा हो परन्तु इनकी विशेषता और महत्व में कभी कमी नहीं आई है। चिट्ठियाँ चाहे पहले कागज़ पर लिखी जाती थीं और आज कंप्यूटर पर लिखी जाती हैं लेकिन पढ़ने वाले को वह आज भी भावुक कर…

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