a short note on it

हृदय सिंधु मति सीप समाना। 
स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥ 
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। 
होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥ - तुलसीदास 

मित्र!
आपके प्रश्न के लिए हम अपने विचार दे रहे हैं। आप इनकी सहायता से अपना उत्तर पूरा कर सकते हैं।

समझदार व्यक्ति अपने मन को सिंधु नदी के समान विशाल रखता है और अपने विवेक को हमेशा सीप समान रखता है तथा मां सरस्वती को स्वाति मानता है। जिस प्रकार वर्षा का जल बरसता है, उसी प्रकार जब अच्छे विचार मन में प्रवाहित होते हैं तब मुक्तामणि अर्थात मोती के समान कविता जन्म लेती है।

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