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नमस्कार मित्र!
भारत गाँवों का देश कहा जाता है। ये हमारे राष्ट्र की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक हैं। गाँव हमारे राष्ट्र की धरोहर है। एक देश का स्वरूप उसके गाँव से बनता है। यह हमारे जीवन का वह पहलू हैं जिन्हें देखकर हमारा मन प्रसन्न हो जाता है।
शहरों की जीवनशैली और संस्कृति गाँवों से सर्वथा भिन्न है। यहाँ का आदमी पैसा कमाने में इतना व्यस्त होता जा रहा है कि वह स्वयं के स्वार्थ हित के कारण भावनाओं, दया, माया, करूणा, ममता से दूर हो गया है। संस्कृति के नाम पर बस नकल रह गई है। अपनी संस्कृति को भुलाकर अनुसरण की संस्कृति अपना ली है। गाँवों की संस्कृति की विशेषता यह है कि वह अनुसरण की नीति से अछुती है। आज यदि अपनी संस्कृति के दर्शन करने हैं, तो गाँवों में जाकर देखें। यहाँ जितना सुख और शांति मिलती है, वह शायद ही कहीं ओर मिले।
पूजा, पर्वों, अनुष्ठानों, लोकगीतों, संगीत, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान का सुंदर रूप देखने को मिल जाएगा। ये सब हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण रूप हैं। इन सबसे मिलकर एक संस्कृति आकार लेती हैं। हमारी संस्कृति की महक आज भी जिंदा होकर हमें हमारे अस्तित्व का अहसास कराती है।  
गाँवों में हर छोटे-बड़े पर्वों पर खुब धूम होती है। हर त्योहार, अनुष्ठान और पुजा महत्वपूर्ण होती है। सभी मिलकर इनको मनाते हैं। लोकगीतों की धुन पर सब एकसाथ नाच उठते हैं, इनकी थिरकन ह्दय को आनन्दित कर देती है। वेशभूषा की सादगी मन को हर लेती है। शहरों में आधुनिकता और फैशन के नाम पर जो वेशभूषा प्रयोग की जा रही है, वह हमारी संस्कृति का रूप नहीं है। हर राज्यों के खाने में विभिन्नता नज़र आती है परन्तु जो स्वाद और रस इस खाने में मिलता है, वह शहरों में नहीं मिलता है। हमारी संस्कृति की ये वे विशेषताएँ हैं, जिनकी शहरों में कमी अखरती है।
 
शहरों में शिक्षा, मनोरंजन एवं स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं की मौजूदगी भी लोगों के पलायन का कारण रही है। व्यक्ति कितना भी गाँव में रहने का इच्छुक हो पर ऊँची शिक्षा व गंभीर बीमारी की स्थिति में गाँवों को छोड़कर उसे शहर जाना पड़ता है। जो सबसे गंभीर समस्या है गाँव में वो है – जातिगत भेदभाव। आज़ादी के 62 साल पूरे होने के बावजूद भी गाँव में छूआछूत, जातिवाद, तिरस्कार तथा सामंती तकलीफों से तंग आकर उन्हें शहरों में शरण लेना पड़ता है, बच्चों को उचित शिक्षा न मिल पाना, निर्धनता व बेरोजगारी ने उनके जीवन को नरक बना दिया है।
इसके विपरीत गाँवों से शहरों में लोगों के पलायन ने शहर की आबादी व अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव डाला है। लोगों का ज़्यादा से ज़्यादा शहरों की तरफ रूख करना शहरों में बेरोजगारी को बढ़ा रहा है, जिसके कारण शहरों में आपराधिक गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है। अधिक आबादी से बिजली व पानी की सुविधा में भी कमी आई है। मोटर-गड़ियों के अधिक प्रयोग के कारण पर्यावरण में प्रदूषण से शहरों में बीमारियों का इजाफा हुआ है। शहरों में सभी धर्मों व जाति के लोगों का साथ मिलकर रहना जहाँ एक ओर एकता का उदाहरण प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी तरफ जातीय दंगों में बढ़ोतरी का कारण भी है।
एक देश शहर व गाँवों से मिलकर बनता है। सरकार को चाहिए ऐसी कारगार योजनाएँ बनाई जाएँ जिससे शहरों को इस लायक बनाया जा सके कि वह आबादी के बोझ व उससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं से सरलतापूर्वक निपट सके। दूसरी ओर गाँवों का इस तरह विकास किया जाए कि वहाँ से आबादी स्थानांतरण को पहले रोका जाए नहीं तो उसकी रफ्तार धीमी की जा सके। हमारे गाँव के सही विकास से वह शहरों से भी अधिक उत्तम व उन्नतिशील बन सकते हैं।
 
सरकार द्वारा गाँव में ही उच्च-शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ, लघु-उद्योग धंधों को बढ़ावा और प्राकृतिक आपदा आने पर बैंकों द्वारा लोन के रूप में सहायता के अच्छे इंतजाम होने चाहिए। इससे हम शहरों व गाँवों को समान रूप से अच्छा विकास दे समस्याओं से मुक्त कर पाएँगे।
एक देश की प्रगति के लिए वहाँ के गाँव और शहर का समान विकास होना अत्यन्त आवश्यक है। तभी एक देश उन्नति व विकास के पथ पर अग्रसर हो पाएगा।
 
ढेरों शुभकामनाएँ!

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