Dohe 2 ka arth
प्रिय छात्र
ललद्यद जी कहती हैं कि इस संसार के सुख-भोग का तू जितना उपयोग करेगा। तुझे इनके भोग से कुछ प्राप्त नहीं होगा अर्थात् तू अपना जीवन इनमें रमकर बर्बाद करे देगा। यदि तू इनका उपयोग (भोग) नहीं करता तो अन्दर तुझे इस बात का अहंकार हो जाएगा कि तू ही सबसे बड़ा है। मनुष्य व्रत-पूजा करता है। उसे इस बात का अहंकार हो जाता है कि मैंने इतने दिनों तक तपस्या की, इतने दिनों का व्रत रखा जो मन में अहंकार के भाव को उत्पन्न करता है। कवियत्री के अनुसार इन दोनों अवस्थाओं में मनुष्य को नुकसान ही होगा। अतः वही व्यक्ति इन अवस्थाओं से निकल सकता है जो बाहरी इंद्रियों तथा अन्दुरनी (अन्तःकरण) इंद्रियों पर स्वयं का नियत्रण रख सकेगा। जब वह अपनी सभी इंद्रियों पर नियत्रंण कर पाएगा तभी उसे उस दरवाजे की साकल (चाबी) मिल पाएगी और वह ईश्वर को प्राप्त कर
धन्यवाद।
ललद्यद जी कहती हैं कि इस संसार के सुख-भोग का तू जितना उपयोग करेगा। तुझे इनके भोग से कुछ प्राप्त नहीं होगा अर्थात् तू अपना जीवन इनमें रमकर बर्बाद करे देगा। यदि तू इनका उपयोग (भोग) नहीं करता तो अन्दर तुझे इस बात का अहंकार हो जाएगा कि तू ही सबसे बड़ा है। मनुष्य व्रत-पूजा करता है। उसे इस बात का अहंकार हो जाता है कि मैंने इतने दिनों तक तपस्या की, इतने दिनों का व्रत रखा जो मन में अहंकार के भाव को उत्पन्न करता है। कवियत्री के अनुसार इन दोनों अवस्थाओं में मनुष्य को नुकसान ही होगा। अतः वही व्यक्ति इन अवस्थाओं से निकल सकता है जो बाहरी इंद्रियों तथा अन्दुरनी (अन्तःकरण) इंद्रियों पर स्वयं का नियत्रण रख सकेगा। जब वह अपनी सभी इंद्रियों पर नियत्रंण कर पाएगा तभी उसे उस दरवाजे की साकल (चाबी) मिल पाएगी और वह ईश्वर को प्राप्त कर
धन्यवाद।