Play on dukh ka adhikar
मित्र इसे आपको स्वयं नाटक रूप में लिखना पड़ेगा। हम आरंभ करके दे रहे हैं। इसे स्वयं पाठ पढ़कर पूरा करने का प्रयास करें-
बाज़ार का दृश्य- आसपास कई दुकाने हैं। सभी लोग खड़े होकर एक बुढ़िया को गलियाँ दे रहे हैं। बुढ़िया एक टोकरी में कुछ तरबूज़ रखे बैठी हुई है। उसका चेहरा नहीं दिख रहा है। परन्तु उसकी सिसकियों की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है। उसकी सिसकियों की आवाज़ सुनकर एक सभ्य सा दिखने वाला व्यक्ति आकर्षित होता है। वह बुढ़िया से कुछ कह नहीं पाता है, परन्तु दुकान में खड़ी भीड़ के पास जा पहुँचता है।
सभ्य आदमी- भाई साहब! क्या बात है? यह औरत रो क्यों रही हैं।
एक दुकानदार- (क्रोध में) क्या करे साहब कलियुग आ गया है। लोग सूतक होने पर भी घर से बाहर निकल आते हैं। दूसरों का धर्म बिगाड़ते हैं। पैसे की मोह माया है। उसे अपनो के जाने का गम भी नहीं सुहाता। बस पैसा कमाना है।
सभ्य आदमी- सूतक! इसके घर में कोई मर गया है क्या?
दूसरा दुकानदार- (थूकते हुए) हाँ! बेटा मरा है इस बेशर्म का। उसका दुख मनाने की बजाय बाज़ार चली आयी है।
बाज़ार का दृश्य- आसपास कई दुकाने हैं। सभी लोग खड़े होकर एक बुढ़िया को गलियाँ दे रहे हैं। बुढ़िया एक टोकरी में कुछ तरबूज़ रखे बैठी हुई है। उसका चेहरा नहीं दिख रहा है। परन्तु उसकी सिसकियों की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही है। उसकी सिसकियों की आवाज़ सुनकर एक सभ्य सा दिखने वाला व्यक्ति आकर्षित होता है। वह बुढ़िया से कुछ कह नहीं पाता है, परन्तु दुकान में खड़ी भीड़ के पास जा पहुँचता है।
सभ्य आदमी- भाई साहब! क्या बात है? यह औरत रो क्यों रही हैं।
एक दुकानदार- (क्रोध में) क्या करे साहब कलियुग आ गया है। लोग सूतक होने पर भी घर से बाहर निकल आते हैं। दूसरों का धर्म बिगाड़ते हैं। पैसे की मोह माया है। उसे अपनो के जाने का गम भी नहीं सुहाता। बस पैसा कमाना है।
सभ्य आदमी- सूतक! इसके घर में कोई मर गया है क्या?
दूसरा दुकानदार- (थूकते हुए) हाँ! बेटा मरा है इस बेशर्म का। उसका दुख मनाने की बजाय बाज़ार चली आयी है।