रस्सी कच्चे धागे की खींच रही मैं नाव
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार,
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे,
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।
खा खा कर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी,
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह,
सुषुम सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह।
ज़ेब टटोली कौड़ी ना पाई
माँझी को दूँ क्या उतराई।