Tell me the summary of vegyanik chetna ke vaahan by chandr shekar venket raman class 9 hindi
यह लेख वैज्ञानिक चन्द्रशेखर वेंकट रामन की संघर्षमय जीवन यात्रा तथा उनकी उपलब्धियों की जानकारी बखूबी कराता है। रामन ग्यारह साल की उम्र में मैट्रिक, विशेष योग्यता की साथ इंटरमीडिएट, भौतिकी और अंग्रेज़ी में स्वर्ण पदक के साथ बी. ए. और प्रथम श्रेणी में एम. ए. करके मात्र अठारह साल की उम्र में कोलकाता में भारत सरकार के फाइंनेस डिपार्टमेंट में सहायक जनरल एकाउटेंट नियुक्त कर लिए गए थे। इनकी प्रतिभा से इनके अध्यापक तक अभिभूत थे। इस दौरान वे बहूबाज़ार स्थित प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करके शोध कार्य करते थे।
फिर उन्होंने अनेक भारतीय वाद्ययंत्रों का अध्ययन किया और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिम देशों की इस भ्रांति को तोड़ने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं। बाद में वे सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद को स्वीकार किया । यहां वे अपना सारा समय अध्ययन, अध्यापन और शोध में बिताने लगे।
सन 1921 में जब रामन समुद्री यात्रा पर थे तो समुद्र के नीले रंग को देखकर उसके वज़ह का सवाल हिलोरें मारने लगा। उन्होंने इस दिशा में आगे प्रयोग किए तथा इसका परिणाम ‘रामन प्रभाव’ की खोज के रूप में सामने लाया। रामन की खोज की वजह से पदार्थों मे अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया। उन्हें ‘भारत रत्न' तथा 'नोबल पुरस्कारों' सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारतीय संस्कृति से रामन को हमेशा ही लगाव रहा।
उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा बनाए रखा। वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे। उन्होंने बैंगलोर में एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान ‘रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। रामन वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमुर्त्ति थे।उन्होंने हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टि से करने का संदेश दिया।
मैं आशा करता हूं कि इससे तुम्हें सहायता मिलेगी!
फिर उन्होंने अनेक भारतीय वाद्ययंत्रों का अध्ययन किया और वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिम देशों की इस भ्रांति को तोड़ने का प्रयास किया कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया हैं। बाद में वे सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद को स्वीकार किया । यहां वे अपना सारा समय अध्ययन, अध्यापन और शोध में बिताने लगे।
सन 1921 में जब रामन समुद्री यात्रा पर थे तो समुद्र के नीले रंग को देखकर उसके वज़ह का सवाल हिलोरें मारने लगा। उन्होंने इस दिशा में आगे प्रयोग किए तथा इसका परिणाम ‘रामन प्रभाव’ की खोज के रूप में सामने लाया। रामन की खोज की वजह से पदार्थों मे अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया। उन्हें ‘भारत रत्न' तथा 'नोबल पुरस्कारों' सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारतीय संस्कृति से रामन को हमेशा ही लगाव रहा।
उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा बनाए रखा। वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे। उन्होंने बैंगलोर में एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध-संस्थान ‘रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की स्थापना की। रामन वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमुर्त्ति थे।उन्होंने हमेशा प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन वैज्ञानिक दृष्टि से करने का संदेश दिया।
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