Can anyone give me the SUMMARY of this poem.

Hi!
महादेवी वर्मा को अपने ईश्वर पर अपार विश्वास और श्रद्धा है। इसी विश्वास और श्रद्धा के सहारे वह अपने ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाना चाहती हैं। कवयित्री अपने हृदय में जल रहे आस्ता रूपी दीपक को सम्बोधित करती हुई कहती हैं कि तुम हर युग, हर दिन, हर क्षण और हर पल इसी तरह जलते रहो क्योंकि तुम्हारे जलते रहने से मेरे परमात्मा रूपी दीपक का मार्ग प्रकाशित होता है। भाव यह है कि ईश्वर के प्रति मेरा विश्वास और श्रद्धा यूँही अटल रहे व मैं इसी तरह अपनी भक्ति को जलाती रहूँ। कवयित्री अपने शरीर को सम्बोन्धित करते हुए कहती हैं कि सूरज विशाल धूप की भांति फैल जा। जिस प्रकार अगरबत्ती स्वयं जलकर सारे संसार को सुगन्धित कर देती है, उसी प्रकार मेरा शरीर सारे संसार में फैलकर अपने अच्छे कर्मों से संसार को सुगन्धित कर दे। जिस तरह कोमल मोम जलकर सारे वातावरण को प्रकाशित कर देती है, उसी प्रकार शरीर रूपी मोम को जलाते हुए कवियत्री अपने अहंकार को नष्ट करने का अनुरोध करती है। तन रूपी मोम के जलने से और अहंकार के पिघलने से चारों तरफ़ दिव्य प्रकाश आलोकित हो जाता है। वह उस प्रकाश में स्वयं को जलाकर ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करना चाहती हैं। इसलिए वह कहती है कि मेरे दीपक तू प्रसन्नता के साथ जलता रह।
आज संसार में भगवान के प्रति आस्था का अभाव है। महादेवी जी ने शीतल कोमल नूतन उन प्रणियों को कहा है जिनका हृदय प्रभु भक्ति से विरक्त है। आस्था की ज्योति उनके हृदय मैं केसे होगी। वह कहती हैं ये सारे कोमल नूतन कण आस्था की जोत को सारे संसार में ढूँढ रहे हैं। परन्तु उन्हें कहीं पर भी कुछ प्राप्त नहीं होता। अतः इन सबको तुझे ही ईश्वर की भक्ति व उसकी आस्था के प्रति विश्वास की ज्योत देनी होगी। महादेवी जी आगे कहते हैं कि संसार रूपी पतंगा पश्चाताप कर रहा है और अपने दुर्भाग्य को रो रहा है कि मैंने इस प्रेम भक्ति की लौ में स्वयं के अहंकार को क्यों नहीं मिटा पाया। यदि मैं अपने अहंकार को मिटा पाता तो शायद अब तक परमात्मा से मेरा मिलन सम्भव हो चुका होता। अतः महादेवी जी अपने आस्था रूपी दीपक से सिहर-सिहर कर जलने की प्रार्थना करती हैं ताकि वह पंतगे की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकें।
महादेवी जी आकाश में टिमटिमाते तारे रूपी संसार के प्राणियों को देखकर कहती हैं कि ये सब तारे स्नेह से रहित हैं, इनके हृदय में ईश्वर की भक्ति व उनके प्रति आस्था रूपी तेल नहीं है। यदि होता तो ये सब द्वेष व ईष्या की अग्नि में नहीं जल रहे होते। वह आगे कहती हैं कि जल से भरे सागर का हृदय ईश्वर से विलग हुआ विरह की अग्नि में जल रहा है तथा भाप बनकर आकाश में बादल का रूप ले लिया है। अर्थात्‌ सागर रूपी समस्त संसार ईश्वर भक्ति न होने से परेशान व दुखी है। उनके हृदय की वेदना निकल कर बादल का रूप ले चुकी है। वे दुखी हो कर जल रहे हैं मानों बादलों के बीच बिजली चमक रही हो। इसलिए कवयित्री दीपक को प्रसन्नता से जलने के लिए प्रेरित करती हैं ताकि संसार के समस्त प्राणियों का मार्ग दर्शन किया जा सके, उनके जलते हुए हृदय के दुख को कम किया जा सके।
आशा करती हूँ कि आपको प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा।
 
ढ़ेरों शुभकामनाएँ!

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